शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

pasopesh mein

पसोपेश में

पसोपेश में हूँ
कि कविता चिह्नों में होती है
या प्रतीकों में
बिम्बों में होती है
होती है मिथकों में
या फिर कुछ तारीखों में

पसोपेश में हूँ
कि कविता आवेग में होती है
या विचार में
कहीं दर्शन की गुत्थियों में होती है
कविता
या किसी के  तरंगी  व्यवहार में

पसोपेश में हूँ
कि कविता
कहीं जंगल की अंधेरी और रहस्यमय
कंदराओं में होती है
या किसी पेड़ की टहनी पर खिले एक
फूल में
कविता छिपी है किसी तलहटी की
सलवटों
 या किसी तालाब की तलछट में
 या विराजती है
हिमशिखर पर उग आए किरीट-शूल में

पसोपेश में हूँ
कि कविता संशिलष्ट चेहरों के
पीछे है
या चेहरों पर फ़ैली है नकाब बनकर
कविता अक्स है अन्दर की किसी
भंवर का
या खड़ी है ठोस सतह पर
हिजाब बनकर

पसोपेश में हूँ
कि कविता आग में  होती है
या आग की लपट में
होती है कविता माँ की दूधिया रगों में
या मौके-बे-मौके की डांट-डपट में

पसोपेश में हूँ
कि कविता सौंदर्य-शास्त्र है
या सौन्दर्य के पिरामिड पर बैठी
शातिर बाघिन
या
फिर एक मासूम गिलहरी

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

स्त्री-पुरुष

उन दोनों के बीच
हमेशा एक सुगंध फ़ैली रहती थी
झगड़ा तब हुआ
जब उन दोनों के बीच
एक पेड़ उग आया
वह कहती - बबूल का पेड़ है यह
वह कहता - यह चिनार है
सारी बहस के केंद्र में
यही तय करना था
कि पेड़ चिनार है या बबूल

इसी बहस में
सुगंध कहीं दूर
अन्दर फैले कंगूरों पर टंग गई
और बहस यह साबित करने के लिए होती रही
कि पेड़ चिनार है या बबूल .

दोनों पेड़ों की शख्सियत में
इतना फ़र्क
फिर भी दोनों तुले थे
साबित करने को
कि पेड़ तो वही है
जो उनकी पुतलियों में उतरता है
हार कर पुरुष ने कहा
हो सकता है कि बबूल भी कहीं समाया हो
चिनार की शिराओं में .
उसने अपनी पुतलियों में उतरे
पेड़ की शिराओं में
बबूल ढूंढ़ना शुरू किया
उसे दिखा कि
चिनार की शिराओं में
कहीं उलझी हैं बबूल की शिराएँ
उसने स्वीकार कर लिया
हाँ शायद कहीं बबूल भी
समाया है चिनार कि पसलियों के नीचे
नहीं बबूल ही है वह
और शायद कहीं
चिनार समा गया है
बबूल की पसलियों में.

सारी बहस यहीं आकर स्थगित हो जाती
और चिनार बार-बार
अपनी शख्सियत खोजता
बबूल से उलझता रहता
बहस कहीं भी ख़त्म नहीं होती
और कंगूरों पर टंगी सुगंध
लौटने की प्रतीक्षा में
अभी वहीं टंगी है
शायद ! सूखने का इंतज़ार करती हुई .

रविवार, 4 अक्तूबर 2009

मुक्ति-द्वार के सामने

मुक्ति-द्वार के सामने
(अपने नाती के लिये)


जब मेघ आता है घर में
घर में लाखों तारों और चन्द्रमाओं की
उजास आ जाती है
जब मेघ आता है घर में
घर की दीवारों के पोर-पोर से
संगीत झरने लगता है
जब मेघ आता है घर में
छतों से भूर गिरने लगती है
रजनीगंधा महक उठती है उसी वक्त
मुस्कराने लगता है हर सिंगार .

जब मेघ आता है घर में
घोड़ों की टापों से भर जाता है घर
क्रिकेट की पिच बन जाता है
घर का दालान
और फुटबाल का मैदान हो जाती है
घर की छत

जब मेघ आता है घर में
अतियों के झूले
स्थिर हो जाते हैं
एक संतुलन बना कर
और
अहं की गांठें खुल-खुल जाती हैं
कितने-कितने आकाशों की सलवटें
ब्रह्मांडों के तनाव
टूटने लगते हैं मेघ के पांवों के अंगूठों की नोंक पर

जब मेघ आता है घर में
तब मैं सचमुच मैं नहीं होता
पता नहीं चलता
और मैं गुज़र आता हूं
युगों और कल्पों के अनुभवों के बीच
तब सारा संसार
मेघमय हो जाता है
हम होते हैं मेघ की बाल-यात्रा के
भोक्ता
सचमुच हमें पता नहीं चलता
कि हम एक मुक्ति-द्वार के सामने हैं.

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

अर्थहीन नहीं है सब

अर्थहीन नहीं है सब

जब ज़मीन है
और पांव भी
तो ज़ाहिर है
हम खड़े भी हैं

जब सूरज है
और आंखें भी
तो ज़ाहिर है
प्रकाश भी है

जब फूल है
और नाक भी
तो ज़ाहिर है
खुशबू भी है

जब वीणा है
और कान भी
तो ज़ाहिर है
संगीत भी है

जब तुम हो
और मैं भी
तो ज़ाहिर है
प्रेम भी है

जब घर है
और पड़ोस भी
तो ज़ाहिर है
समाज भी है

जब यह भी है
और वो भी
यानी नल भी
जल भी और घड़ा भी
तो ज़ाहिर है
घड़े में जल भी है
अर्थ की तरह
और
आदमी है समाज में
हर प्रश्न के
हल की तरह .