रविवार, 16 अक्तूबर 2011

Das Baal Natak

मित्रो,
हाल ही में मेरा एक नया लघु नाटक-संग्रह 'दस बाल नाटक' किताबघर प्रकाशन, अंसारी रोड, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है. इसमें मेरे वे  बाल नाटक हैं तो रविंद्रनाथ टैगोर की बाल कहानियों से प्रेरित होकर लिखे गए हैं. आशा है आप समय निकाल कर इन्हें पढेंगे और अपने तथा अन्य बच्चों को भी पढ़ने के लिए प्रेरित करेंगे. आपकी प्रतिक्रियाएं मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं. 


मंगलवार, 24 मई 2011

Priykaant: parjeevi darshan ka bi-product


मेरे नए उपन्यास प्रियकांत पर रामजी यादव ने एक समीक्षताम्क आलेख लिखा है. मुझे लगता है की प्रियकांत पर रामजी ने गंभीरता पूर्वक लिखा है. मुझे अच्छा लगा और चाहा  कि इसे अपने मित्रों से शेयर करूँ. आप पढेंगे तो आपके मन में भी कई प्रश्न उठेंगे और शायद प्रियकांत पढ़ने की जिज्ञासा भी हो.



प्रियकांत: परजीवी दर्शन का बाई-प्रोडक्ट



रामजी यादव



बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में उभरे हिन्दू पुनरुत्थानवाद और आध्यात्मिक बाज़ार ने भारत के सामाजिक विकास को एक ऐसे चरण में पहुँचा दिया था जहाँ से जन-साधारण और संस्कृति के अन्तर्संबंध बहुत जटिल ही नहीं प्राय: जन-विरोधी भी होने लगे थे। उन्नसवीं और बीसवीं सदियों के संधिकाल और आगे के कुछ दशक अध्यात्म की सामाजिक भूमिका का कालखंड रहा है। स्वामी रामतीर्थ, विवेकानंद, श्रद्धानंद, महर्षि अरविंद, सहजानंद सरस्वती, बाबा रामचन्द्र, दयानंद, नारायण गुरू, गाडगे बाबा, अछूतानंद जैसे अनेक चमकते सितारों ने इस काल मे वृहत्तर सामाजिक दायित्त्वों का निर्वाह किया और जन-मन में अपना अमिट स्थान बनाया। लेकिन बाद का समय महेश योगी और चंद्रा स्वामी जैसे लोग घेरते गए जो अपने समय की सत्ताओं से चिपके रहे। योग, तंत्र, प्रवचन की खिचड़ी इतनी स्वादिष्ट बनी कि इसके बाद आध्यात्मिक गुरुओं की फ़ौज खड़ी हो गई। बाज़ार और मीडिया ने उन्हें इतना हाइप और प्रचार दिया कि वे घर-घर पहुँच गए। आसाराम, सुधांशु, अम्मा, शनिदेव जैसे अनेक लोग मीडिया के चेहरे और ज़रूरत बन गए और रामदेव ने तो खाये-अघाये उच्च और मध्य-वर्ग को हिलाकर ही रख दिया। यहाँ तक कि योग को बेचने की हज़ारों अन्य दुकानें भी जगह बनाने लगीं। इस ऊपरी परिदृश्य के पीछे कितने लोमहर्षक षड्यंत्र और अमानवीय कृत्य होते हैं, यह एक अकथ कथा है।



प्रताप सहगल का उपन्यास प्रियकांत एक ऐसी ही दुनिया का आख्यान है। कुल एक सौ ग्यारह पृष्ठों के इस उपन्यास को एक लंबी कहानी की तरह पढ़ा जा सकता है लेकिन इसका

2



वितान बहुत बड़ा है। मौलिक रूप से यह उपन्यास आर्य समाज की नई कतारों और उसकी परम्परा की द्वंद्व कथा है। खासतौर से भारतीय सामाजिक संरचना के भीतर आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक रूप से अमानवीय स्थितियों में जीने को अभिशप्त समाजों द्वारा धार्मिक सत्ता के अस्वीकार के बरक़्स आर्यसमाज का अतीत भी घोर पुनरुत्थानवादी परम्परा ही है परन्तु उपन्यासकार ने इस राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को छोड़ दिया है। दर असल यह उस अतीत का नई प्रवृत्तियों के समानान्तर उदगान है जिसका एक व्यापक भूगोल में गहरा असर रहा है। आर्य समाज ने पश्चिम भारत (आज के पाकिस्तान के अधीकांश हिस्सों समेत) के तत्कालीन पैटी बुर्जुआ समाजों को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया है। ज़ाहिर है यह पैटी बुर्जुआ समाज हिंदुओं की मध्यवर्ती जातियों का प्रभावशील तबका था जिसका खेती और खुदरा व्यवसाय पर वर्चस्व था। आर्य समाज ने अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए इसी समाज में अपनी जड़ें जमाईं। प्रियकांत की अवांतर कथाओं में भी स्पष्ट रूप से इसी प्रवृत्ति को देखा जा सकता है। इस रूप में यह उपन्यास महज़ प्रियकांत के जीवन की कथा मात्र नहीं है बल्कि उस पूरी मिट्टी की कथा है जहाँ से अनवरत एक अनुत्पादक वर्ग की फ़सल पैदा हो रही है। यह फ़सल पाखंड, अंधविश्वास, संकीर्णता, साम्प्रदायिकता, असमानता और लोकतंत्र विरोध के बीज किस मात्रा में जन-मानस में फ़ेंक रही है, वास्तव में प्रियकांत की रचनात्मक उपलब्धि यही दिखाना है।



अपने गुरू की मर्यादाओं से बंधा प्रियकांत वस्तुत: अपनी पहचान को लेकर बेचैन है। उसका विचलन इसी पहचान को लेकर होता है जो एक आध्यात्मिक सत्ता पाने के बावजूद रुकता नहीं बल्कि और भी अस्थिर होते हुए अन्तत: उसे ध्वस्त कर देता है। यह एक ऐसी त्रासदी की तरह घटित होता है जिसमें लोभ, लालच, चालाकी, धार्मिक कुटिलता, गुंडागर्दी, धोखाधड़ी और षड्यंत्र की अनेक लोमहर्षक कथाएँ हैं। ये कथाएँ स्वतंत्र भारत में तेज़ी से पनपे एक ऐसे तंत्र की भयावह दुनिया को सामने लाती हैं जहाँ हर तरफ़ एक मूल्यहीनता की पराकाष्ठा है लेकिन धर्म के आवरण में उसे सबसे बड़ा मूल्य बना दिया गया है।





3



यह एक और महत्त्वपूर्ण संकेत करता है कि धर्म और अध्यात्म किस तरह भौतिक सत्ता पर काबिज़ शोषक वर्ग के उद्देश्यों और आकांक्षाओं को अधिक फलदायी और शक्तिशाली बनाता है। हालांकि प्रियकांत में चित्रित दुनिया मध्यवर्ग की दुनिया है लेकिन इस परजीवी वर्ग के शिकार उत्पादक वर्गों के सांस्कृतिक संकटों और शोषण के अनवरत चक्र में फंसते जाने की परोक्ष कथाएँ भी मानो इस दृश्य पटल पर चलती रहती हैं। इतिहास में इसे हम धार्मिक पहलकदमियों की उस श्रंखला में भी आसानी से देख सकते हैं जिसमें तथाकथित सामाजिक उत्थान और ब्रिटिश उपनिवेश से मुक्त होकर ‘अपना राज्य, अपना शासन और अपना आधिपत्य’ प्राप्त करने की प्रबल आकांक्षाएँ पैदा की गईं। इस प्रकार बहुत साफ तौर पर यह सामने आता है कि धर्म और अध्यात्म की वर्तमान यात्रा रोशनी और अंधेरे का कितना सटीक गठजोड़ कर रही है और वह किस तरह शोषण की चरम सत्ता का उपयोगी हथियार है।



प्रियकांत महज़ प्रियकांत की कहानी नहीं है। वह विभाजन के बाद फ़िर से अपनी जड़ें जमाने के बाद भोगेच्छा और लालसाओं से भरे गुलशन और घनश्याम, अपनी कुंठाओं और अकर्मण्यताओं से जनित असफलता से निजात पाने की अंधी कोशिशों में मुब्तिला शेखर, लगातार आत्मलिप्त और स्व-केंद्रित होते जा रहे बुद्धिजीवी नीहार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता का पक्षधर होने के बावजूद पारिवारिक सुरक्षा के लिए पलायन करने वाले पत्रकार चिंतन के बहाने धार्मिक उन्माद के नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बनते लोकतंत्र के चौथे खंभे, जनसामान्य से उस्तादी करने वालों की कमज़ोरियों से लाभ उठाने में उस्ताद कमलनाथ और ऐसी ही सफेदपोशी में माहिर माधव की कहानी है। और कुल मिलाकर यह एक ऐसी डरावनी दुनिया है जिसकी जड़ें समाज में बहुत गहरी हैं



अगर उपन्यास के पात्रों के जीवनकाल और घटनाओं की तफ़सील को ध्यान में न लाएँ तो भी इसकी टाइम लाइन पाठक के मन में एक खटका पैदा करती है कि लगभग डेढ़ दशक की कथा इतनी जल्दी खत्म होती जा रही है। डेढ़ दशक इसलिए कि 1992 के बाद के धर्मोन्माद

4



को यहाँ विशेष अभिलक्षणों के साथ चित्रित किया गया है। ‘आध्यात्म बाज़ार’ के एक विशेष काल में स्थानीय और राष्ट्रीय प्रवृत्ति की धार्मिक कुटिलता को लगभग दो समानांतर कथाओं के सहारे दिखाया गया है कि ज़माने की हवा देखकर कैसे गुलशन जैसा ‘पतित’ व्यक्ति स्थानीय मोहरों का इस्तेमाल करता है। वह बड़ी चतुराई से न केवल धार्मिक उन्माद का उपयोग करता है बल्कि सबसे सम्मानित बुज़ुर्ग ‘बाऊजी’ के रूप में प्रतिष्ठित भी हो जाता है। वह दर असल ‘आध्यात्म बाज़ार’ का स्थानीय प्रतिनिधि है। उसके अतीत और वर्तमान की तफ़सील न होने के बावजूद इस उपन्यास की टाइम लाइन में एक ऐसे ठेठ चरित्र के रूप में विकसित हुआ है कि जिस पर बार-बार ध्यान जाता है। गुलशन वस्तुत: स्वातंत्र्योत्तर भारत की शहरी व्यवस्था का एक ऐसा सदस्य है जो कई पुरानी अवधारणाओं को तोड़ता और नई अवधारणाओं की जगह बनाता है।



दूसरी ओर प्रियकांत और अधिक जटिल संरचना को लेकर सामने आता है। अपने कद-बुत और लालसाओं आकांक्षाओं से बाहर वह एक ऐसी राष्ट्रीय प्रवृत्ति का रूपक दिखाई देता है जिसमें ऊपर से नीचे तक एक भयानक भूख दिखती है लेकिन भक्ष्य-अभक्ष्य ज्ञान दर किनार है। सभी को एक शिखर चाहिए। चाहे इसके लिए कितना भी नीचे क्यों न गिरना पड़े। स्वयं प्रियकांत आर्य समाज की अपनी शिक्षा और उसके संस्कारों को अपने विकास में एक रोड़ा मानता है। यह प्रक्रिया इतनी धीमी और सहज ढंग से पूरी होती है कि लगता है गोया वैष्णव की फिसलन हो रही है। जो प्रियकांत इस्कान वालों की मूर्तिपूजा को पाखंड समझता है वही एक दिन अपने सत्संग में मूर्तियाँ रखने लगता है। उसका मूल ध्येय किसी धार्मिक या आध्यात्मिक परम्परा का निर्वाह है भी नहीं। वह तो अपनी सारी चतुराई बेशुमार दौलत कमाने और मीडिया का जाना-पहचाना चेहरा बन जाने में ही अपनी मंज़िल देखता है। इसके लिए वह शेखर जैसे समर्पित भक्त का भी एक झटके में पत्ता साफ कर देता है। यह सब उसकी एकछत्रता और निरकुंशता के लिए ज़रूरी भी है। और इसका अंत हेमा के सान्निध्य में होना भी। दर असल एक बार प्रियकांत जब एक बार माया की दलदली ज़मीन पर चलने लगता है तो गले तक पंक में डूब जाना उसकी नियति बन ही जाती है।



5



उपन्यासकार ने प्रियकांत को किसी सहानुभूति के लायक नहीं बनाया है बल्कि बीसवीं- इक्कीसवीं शताब्दी के पाखंडी मध्य-वर्ग और उसके सहज उत्पादों को एक माडल के रूप में रखते हुए समाज के एक व्यापक हिस्से के सड़ चुके होने की तस्दीक करता है। इस सडांध में शेखर जैसों की त्रासदी, नीहार जैसे लोगों की नपुंसक बौद्धिकता और चिंतन जैसे लोगों का लोकतांत्रिक शक्तियों और संस्थाओं पर घटते भरोसे और सामाजिक जवाबदेही से पलायन बहुत स्वाभाविक लगता है। पाब्लो नेरुदा के शब्दों में यह सड़ चुके तनों और खोखली हो चुकी जड़ों का रूपक है। इस रूप में यह भारतीय शहरी मध्य-वर्ग के निरर्थकता बोध और दिशाहीनता का भी आख्यान है जहाँ पुरानी खाद पानी से नई फ़सल नहीं बल्कि बदबूदार माहौल का ही ज़्यादा विकास दिखता है। यह उपन्यास एक तरह से मीडिया के उस चरित्र की भी बहुत सख़्त पड़ताल करता है कि किस प्रकार वह कुछ चेहरों को रातों-रात महान बना देता है और ऐसे ही किसी चेहरे को सनसनी का विषय बनाकर पतन के गर्त में गिरा देता है।



इस रोचक उपन्यास को पढ़ते हुए भारतेंदु हरिश्चंद्र की ‘अंधेर नगरी’ की बार-बार याद आई। अंधेर नगरी की चमक में एक चेला मौत के मुँह तक चला जाता है और बचाव के लिए गुरू को पुकारता है। इस उपन्यास का नायक भी अपने गुरू की ही शरण में जाता है। लेकिन इस बार गुरू उसे उबारने की प्रक्रिया में भ्रष्ट राजा को उसकी मूर्खता का शिकार नहीं बना पाता। क्योंकि चेला अपने कुत्साओं से उबरने योग्य नहीं रह गया है। उपन्यास के अंत में प्रियकांत और प्रियांशु एक दूसरे में डिज़ाल्व होते दिखते हैं।



यह दर असल इतिहास के दो पड़ावों पर सृजित कृतियों के समयांतराल और यथार्थांतराल की रचनात्मक उपलब्धियाँ हैं

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

वह आदमी

                                               प्रताप सहगल




महेश डलहौजी पहली बार आया था. अपनी शादी के तीस साल बाद. इससे पहले वह कई  हिल-स्टेशन घूम चुका था, लेकिन डलहौजी के बारे में उसके मन में एक उजाड़ हिल-स्टेशन की छवि बनी हुए थी. इसलिए डलहौजी आना वह बार-बार टालता रहा.
डलहौजी में दाखिल होते ही उसकी छवि टूटने लगी. सड़कें किसी भी विकसित हिल-स्टेशन सी चिकनी और दोनों और हरे भरे चीड के पेड़ थे. बीच-बीच में कच्चे पहाड़ दिख जाते थे. उन पर बने जल-बहाव के निशान यह संकेत दे रहे थे के बारिशों में इन सड़कों पर भू-स्खलन आम बात होती होगी. हालाँकि कच्चे पहाडों को भी पेड़ लगा कर मजबूती देने की कोशिश की गई थी, लेकिन संभवत वो कोशिश नाकाम रही.


घुमावदार सड़कों पर बलखाती गाडी के शीशे उसने खोल दिए और प्रदूषण-रहित हवा को अपने फेफडों में भरने लगा. साथ ही बैठी नीमा भी वही कर रही थी. किसी भी हिल-स्टेशन पर जाने का सबसे पहला अहसास महानगरों की प्रदूषण-भरी ज़िन्दगी से मुक्ति का अहसास होता है.


पठानकोट से डलहौजी पहुँचने में चार घंटे लग गए.  होटल में सामान लगा और फ्रेश होने के बाद भूख दस्तक देने लगी. ड्राईवर उन्हें गाँधी चौक ले गया. यहीं डलहौजी का मुख्य बाज़ार है. महेश गाड़ी से उतर कर किसी ठीक-ठिकाने जगह कि तलाश करने लगा. ड्राईवर ने उसे शेरे पंजाब सहित तीन-चार रेस्तरां के नाम बताये थे. वह और नीमा चौक के कार्नर पर बने क्वालिटी रेस्तरां में घुस गए.


एक मेज़ पर महेश और नीमा आमने-सामने बैठ गए. रेस्तरां की सजावट आकर्षक थी. हर कोने में अमूर्त पेंटिंग्स टंगी हुई अति-यथार्थवाद की दुनिया में ले जा रही थीं.


ठीक सामने वाली मेज़ पर महेश कि नज़र पड़ी तो वहीं ठिठकी रह गई. उस मेज़ पर एक अनजान व्यक्ति बैठा था. उसे महेश ने पहले कभी नहीं देखा था. उसके व्यक्तित्व में कुछ ऐसा था  जो बरबस महेश को उसकी ओर आकर्षित कर रहा था. महेश ने अपने आसपास नज़र घुमा कर देखा कि उसे कोई और भी देख-परख रहा है या केवल वही उसकी ओर आकर्षित हो रहा था. रेस्तरां में अभी कुल चार-पांच मेजों पर ही लोग जमा हुए थे और सभी अपने-अपने में व्यस्त. सामने कोने वाली मेज़ पर एक नव-विवाहित जोड़ा रोमांस में मशगूल था. दायीं ओर तीन विदेशी लड़कियां अपने आस-पास से बेखबर नेटिव भाषा में बतिया रही थीं. पीछे की मेज़ पर एक अधेड़ पति-पत्नी और उनके दो बच्चे खाने के आर्डर पर एक-दूसरे से झगड़ रहे थे. किसी भी मेज़ पर महेश की नज़र एक-दो क्षण से ज्यादा नहीं टिक रही थी. महेश की नज़र घूम-फिर कर उसी व्यक्ति पर केन्द्रित हो गई.


महेश ने अनुमान लगाया कि उसकी उम्र साठ के आसपास होगी. सिर पर बाल कम और पूरी तरह पके हुए थे. गंदमी रंग और शरीर गठा हुआ लग रहा था. उसका चेहरा मोहरा,  बैठने का अंदाज़ एक आकर्षक व्यक्तित्व  का अहसास देता था. उसके हाव-भाव बता रहे थे कि वह भी यह बात जानता था. अपने व्यक्तित्व को लेकर शायद वह इतना आश्वस्त था कि वह अपने आसपास किसी को भी नहीं देख रहा था. कहीं उसके मन में यह भाव भी तैर रहा था कि दूसरों का ध्यान ही उसपर कन्द्रित होना चाहिए.


नीमा ने काम्बो खाने का आर्डर दे दिया था. काफी देर से फैली खामोशी को नीमा ने ही तोड़ते हुए पूछा- "उधर क्या देख रहे हो" दरअसल उस व्यक्ति कि ओर नीमा की पीठ थी और वह उस व्यक्ति को नहीं देख पा रही थी.


"ऐसे ही.....सोच रहा था रेस्तरां  में सिर्फ यही व्यक्ति अकेला क्यों है" कहते हुए महेश ने अपनी आँखों से ही उस व्यक्ति की तरफ इशारा किया.
नीमा ने गर्दन घुमा कर उस व्यक्ति को देखते हुए कहा- "होगा कोई लोकल"
"नहीं....सैलानी है....उसके कपडे, उसके जूते और उसके चहरे के भाव"


तभी बैरे ने उस व्यक्ति की मेज़ पर चिकन टिक्कों से भरी प्लेट और उसके साथ एक नॉन ला कर रख दिया.  वह अपने आसपास से उसी तरह से बेखबर उन्हें खाने लगा. महेश अभी भी उसे देख रहा था. उसे इस तरह किसी को देखना बेअदबी लग रही थी, लेकिन वह अपने आप को रोक नहीं पा रहा था.


महेश कहीं  अन्दर ही अन्दर उस व्यक्ति के एकांत से रश्क कर रहा था. इन दिनों उसके और नीमा के रिश्तों में एक तनाव आ गया था और वे उस तनाव को तोड़ने से मुक्त होने के लिए कुछ-कुछ दिनों के लिए दिल्ली  से बाहर निकल जाते थे. 


महेश को कहीं ऐसा भी लगने लगा था की ज़रूर उस व्यक्ति के जीवन में भी कोई तनाव होगा और वह उस तनाव से मुक्त होने के लिए ही अपनी तरह से एकांत जीना  चाहता है. महेश नहीं जानता था की एकांत जीना क्या होता है. वह तो जहाँ भी जाता है, नीमा हमेशा उसके साथ होती है. वह कई बार साथ-साथ होते हुए भी एकांत जीने की कोशिश करता लेकिन साथ-साथ रहते हुए, एक-दूसरे को टोकते हुए, एक दूसरे का ध्यान रखते हुए क्या एकांत जिया जा सकता था?


इसी प्रश्न को लेकर महेश के  मन में  कुछ केंचुए रेंगने लगे थे. एक-दूसरे से लिपटे हुए केंचुए. महेश उन केंचुओं की पकड़ में था कि वेटर ने मेज़ पर प्लेटें सजा दीं. महेश का मन उन केंचुओं की पकड़ से छूट झकाझक सफ़ेद प्लेटों में अटक गया. शायद उसे भूख सताने लगी थी.


वह व्यक्ति चिकन-टिक्कों की प्लेट खा कर नैपकिन से अपने होंठ साफ़ कर रहा था. थोड़ी ही देर में वह अपना बिल चुका कर रेस्तरां से बाहर चला गया, लेकिन महेश अभी भी उसके व्यक्तित्व में उलझा हुआ उसके एकांत से ईर्ष्या कर रहा था.


कुछ देर बाद महेश के सामने खाना आ गया. उसका मन अभी भी चिकन-टिक्कों की प्लेट में उलझा हुआ था. उसने नीमा से यह बात कही. नीमा ने कहा-"अब वो मंगवाओगे तो यह कौन खायेगा"


महेश चुपचाप परोसा हुआ खाना खाने लगा और थोड़ी ही देर बाद वे सुगन्धित सौंफ चबाते हुए रेस्तरां से बाहर आ गए
"खाना अच्छा लगा न?"  नीमा ने ऐसे पूछा जैसे खाना उसी ने बनाया हो.
"हाँ" संक्षिप्त सा जवाब देते हुए उसने ड्राईवर को गाडी लाने के लिए कहा.
वहां से वे सुभाष बाऊली और सतधारा देखने गए. दोनों ही जगहों पर कुदरत अपने हसीन यौवन का रंग बिखेर रही थी, लेकिन महेश का मन कुदरत के यौवन में अटकने के बजाये उस व्यक्ति में अटका हुआ था. उसने अपने मन को बार-बार समझाया भी कि वह उस अनजान व्यक्ति के बारे में इतना क्यों सोच रहा है. उसका मन था कि दिमाग के आदेश को नहीं मान रहा था.


महेश जहाँ भी जाता, उसकी नज़रें उस व्यक्ति को खोजतीं. उसने सोच लिया था कि वह उसे जहाँ भी दिखा तो वह उससे उसके बारे में पूछकर अपनी जिज्ञासा शांत कर लेगा. अपनी इसी खोज में ही वह दो दिन लगातार उसी रेस्तरां में खाना खाता रहा. उसे विश्वास था कि वह व्यक्ति भी फिर वहीं खाना खाने आएगा. उसका विश्वास रेत की दीवार साबित हुआ.


दो दिन बाद महेश और नीमा डलहौजी से खज्जियार की ओर रवाना हो गए. खज्जियार की खूबसूरती के चर्चे भी उसने बहुत सुने हुए थे. लगभग एक घंटा बाद वे खज्जियार की वादी में थे. उनके सामने हरा-भरा खुला मैदान खुलेपन की परिभाषा दे रहा था. मैदान के चारों ओर तीन स्तरों पर खड़े देवदार के ऊंचे पेड़ मैदान के व्यक्तित्व के तीन स्तरों का संकेत दे रहे थे. महेश अपने मन को उस मैदान से जोड़कर समझने की कोशिश कर रहा था. हवा में तैरती हल्की गुलाबी ठंड और चटख धूप सुहावने मौसम का पर्याय बन गईं थीं. वे दोनों खज्जी नाग का मंदिर देखने के बाद खुले मैदान में ही बैठकर मौसम जी रहे थे कि महेश की नज़र फिर ठिठक गई. उसने देखा कि उस मैदान के दूसरे छोर पर वही व्यक्ति अकेला एक कुर्सी पर बैठा था. उसने नीमा से कहा-"वही
आदमी....तुम यहीं बैठो नीमा....मौसम का मज़ा लो, मैं उससे मिलकर आता हूँ."


"मैं भी चलती हूँ न"
"नहीं तुम बैठो....प्लीज़....थोड़ी देर में आता हूँ" कहकर वह अपना कैमरा सँभालते हुए उस व्यक्ति के पास पहुँच गया.
वह व्यक्ति एक कुर्सी पर बैठा किसी लोकगायक से चम्बा का लोकगीत सुन रहा था. वह लोकगायक दायें  हाथ में रबाब और बाएँ  हाथ में खंजडी पकड़कर बजाता  हुआ गा रहा था. महेश अपने कैमरे से उसे शूट करने लगा. उस व्यक्ति ने अभी तक महेश को  देखा नहीं था. दो गीत सुनाने के बाद लोकगायक चला गया तो महेश ने उस व्यक्ति की ओर मुखातिब होते हुए कहा-"हेलो"


"हेलो" उस व्यक्ति ने जवाब दिया. उसकी 'हेलो' में निस्पृहता थी.
"आई ऍम महेश...महेश दत्त.." कहते हुए उसने अपना हाथ उस व्यक्ति की ओर बढा दिया.
उस व्यक्ति ने क्षण भर महेश को देखा और फिर उसका हाथ थामते हुए बोला- "आई ऍम कैलाश...कैलाश खोसला"
"आप डलहौजी में भी थे न...!" महेश ने अपने स्वर में आत्मीयता घोलते हुए पूछा.
"हाँ" संक्षिप्त जवाब .
"अकेले हैं?"
"हाँ" वही संक्षिप्त जवाब.
"मैं आपके पास थोड़ी देर बैठ सकता हूँ?"
"कोई ख़ास बात!" कैलाश ने सवाल के जवाब में सवाल ही किया.
महेश थोडा अचकचा गया. फिर भी उसने हिम्मत बटोरते हुए कहा-" नहीं...बस दो दिन पहले आपको डलहौजी में देखा था...क्वालिटी में...तभी से आपसे बात करने का मन कर रहा था."
"बैठिये"


महेश के पास ही एक ओर पडी कुर्सी को खिसका कर बैठ गया. दोनों के बीच एक अपरिचित खामोशी थी. लोकगायक के सुनाये गीतों की धुनें उस अपरिचित खामोशी में भी सुनाई दे रहीं थीं
खामोशी में महेश ने ही सेंध लगाई-"सोच रहा था कि आप इतने खूबसूरत इलाके में अकेले.."
कैलाश की बड़ी-बड़ी आँखें महेश की ओर उठीं. महेश ने उन आँखों में समाई गहरी उदासी को पढ़ लिया, लेकिन किसी अयाचित टिप्पणी के डर से खामोश रहा.
"आप....." उस व्यक्ति की जिज्ञासा थी.
"नहीं.. मैं अकेला नहीं....मेरी पत्नी है मेरे साथ...वो देखिये मैदान के उस ओर..."
"उन्हें भी साथ रखना चाहिए था न....उन्हें वहां क्यों छोड़ दिया"
"दरअसल बात यह है मिस्टर कैलाश के मैं दो दिन से यही सोच रहा था के आप किस तरह से अपना एकांत जीते हुए यहाँ से वहां घूम रहे हैं...ऐसा होता है न कि हर आदमी कभी पूरी तरह से मुक्त होकर जीना चाहता है...अपने में...अपने साथ....अपने एकांत के साथ"
कैलाश की आँखों में समाई उदासी और भी गहरी हो गयी.  अब उसकी आवाज़ में भी उदासी झलकने लगी थी-" आप बहुत लकी हैं मिस्टर महेश के आप अपने पार्टनर के साथ घूम रहे हैं"
"तो क्या आपका पार्टनर....!"
"था...हम दोनों भी जहाँ जाते...हमेशा साथ-साथ ही जाते थे...शहर में या शहर से बाहर....एक दूसरे से प्यार करते हुए....लड़ते हुए..मनाते हुए..."
"तो..."
"बस चार साल पहले....मेरी पत्नी गीता डेंगू की गिरफ्त में ऐसी फंसी कि लाख कोशिश करने पर भी वह बची नहीं....बहुत प्यार करती थी वो मुझसे..तब से अकेला हूँ....इधर-उधर भटकता हुआ..जिसे आप एकांत कह रहे हैं न वो मेरा एकांत नहीं मेरा अकेलापन है....मैं अपने अकेलेपन से लड़ने के लिए....उसे तोड़ने के लिए नई नई जगहों पर जाता हूँ.....नए पहाड़, नए-नए पेड़, नई सड़कों और नए नए मौसमों से मिलता हूँ......अपना एकांत तो आप कहीं भी और किसी के साथ रहते हुए भी जी सकते हैं....लेकिन अकेलापन बहुत मारक होता है मिस्टर महेश....अकेलापन जब आदमी में उतरता है तो उसे अन्दर तक तोड़ देता है....और मैं टूटना नहीं चाहता.  अपने-आप को बचा कर रख सकूं,  इसीलिये यहाँ-वहां...इस शहर से उस शहर....और फिर मुझमें जीने की एक नई ऊर्जा आ जाती है ...उसी ऊर्जा के सहारे अपने काम पर लौटता हूँ ...." कहते कहते कैलाश की आवाज़ कुछ कांपने लगी थी. उसकी आँखें पनीली हो गयी थीं.
उसने जेब से अपना रूमाल निकाला  और उससे अपनी अपनी पनीली आँखों को ढक लिया.


महेश को अपने पूरे परिवेश में स्तब्धता का एहसास हो रहा था. उसे कैलाश ने एकांत और अकेलेपन की समझ दे दी थी.
वह बिना कुछ कहे उठा और हलके-हलके क़दमों से नीमा के पास लौट आया. उसने देखा कि नीमा की आँखों से झांकता इंतज़ार उसीको खोज रहा था.
महेश ने पलटकर देखा....कैलाश वहां से जा चुका था.


http.partapsehgal.blogspot.com

www.partapsehgal.com


    ऍफ़ - १०१, राजौरी गार्डन, नई दिल्ली-११००२७
फ़ोन :  २५१००५६५,   ९८१०६३८५६३