मित्रो,
थोडा धैर्य हो तो इसे अवश्य पढ़ें और फिर चाहें तो मुझसे संवाद करें.
शब्द को मंच पर उतरते हुए देखना
प्रताप सहगल
अन्वेषक लिख चुकने और कई जगहों में उसका पाठ और कई लेखक-मित्रों और दो-एक नाट्य-निर्देशकों के पढ़ने के बाद भी किसी न किसी वजह से जब उसका मंचन नहीं हुआ तो मुझे लगा कि अब इसे छपवा देना चाहिए। मेरा मानना है कि अगर आप नाटक के प्रारूप से आश्वस्त हैं और किसी कारण उसका मंचन नहीं हो रहा तो उसे छपवा कर विस्तार देना चाहिए। इससे नाटक दूर-दूर तक कई लोगों के हाथ में पहुँचता है और फ़िर उसे अपना मंच भी मिलता है।
मैं इस बात से आश्वस्त था कि अन्वेषक का मंचन होना चाहिए। उसके छपने के थोड़े से वक़्त के बाद ही बिहार में काम कर रहे एक युवा-निर्देशक अखिलेश अखिल ने पूर्णिया में उसका मंचन कर ही दिया। यह मेरे लिए एक संतोष देने वाली बात तो थी, लेकिन मैं न तो उसकी मंचन-प्रक्रिया और नाहीं उसकी प्रस्तुति का हिस्सा बन सका था। नाटक के मंचन के बाद उन्होंने अख़बारों में छपी नाट्य-समीक्षाओं की कुछ कतरनें और कुछ फ़ोटोग्राफ़्स मुझे भेजे, जिनसे मैं इतना अनुमान ज़रूर लगा सका कि नाटक को दर्शकों ने पसंद किया। अखिलेश ने अपने निर्देशकीय में इसे हिन्दी में विज्ञान-नाटक की शुरुआत माना। बाद में जब मोहन महर्षि ने आइंस्टाइन लिखकर उसका दिल्ली में मंचन किया तो मुझे लगा कि शायद अखिलेश की बात सही थी।
इसके बाद एक लंबे अरसे तक नाटक फ़िर पड़ा रहा। जिन्होंने इसे पढ़ा, उन्होंने पसंद किया और मंचन करवाने की राय भी अपने-अपने तरीके से बहुत लोगों ने दी। प्रकाशित होने से पहले इसका मंचन न हो पाने की स्थितियों का ज़िक़्र मैंने अन्वेषक की अपनी भूमिका में किया है।
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इस बीच मेरी मुलाक़ात साहित्य कला परिषद के सचिव और हिन्दी के एक प्रतिष्ठित रंग-निर्देशक शेखर वैष्णवी से हुई। अन्वेषक की एक प्रति मैंने उन्हें भी पढ़ने के लिए दी। उन दिनों उन्हीं की देख-रख में परिषद रंग-मंडल भी काम कर रहा था और विभिन्न नाट्य-निर्देशकों के निर्देशन में रंगमंडल कई नाटकों की अच्छी प्रस्तुतियाँ कर चुका था। राष्ट्रीय नाट्य-विद्यालय के बरक्स वे परिषद रंग-मंडल को खड़ा करने में लगे हुए थे। रंग-मंडल के अधिकतर कलाकार राष्ट्रीय नाट्य-विद्यालय के रंग-दल के अभिनेताओं की तरह से प्रशिक्षित तो नहीं थे, लेकिन उनमें अभिनय-प्रतिभा थी। इसीलिए किसी भी कुशल सुजान नाट्य-निर्देशक के हाथ में पड़ते ही उनकी नाट्य-प्रतिभा खिल उठती।
कोई दो-तीन सप्ताह बाद जब फ़िर शेखर से मेरी मुलाक़ात हुई तो उन्होंने कहा – “प्रताप भाई, मुझे यह नाटक बहुत अच्छा लगा है और मैं इसे पढ़ने के बाद ख़ुद को अन्वेषक समझने लगा हूँ……हम सबके अंदर एक अन्वेषक है और मैं ही इस नाटक का मंचन करना चाहूँगा”
“ठीक है” कहकर मैं एक पुरानी स्मृति में खो गया। बहुत साल पहले मेरे एक मित्र वेद ढींगरा ने मुझे आकर कहा था –“मेरे एक मित्र हैं शेखर वैष्णवी……एन एस डी पास-आउट हैं…वे आपके नाटक ‘अंधेरे में’ का मंचन करना चाहते हैं। नाटक की एक प्रति और आपका कंसेंट लैटर चाहिए” मैंने बहुत ही खुशी से उनको वे दोनों चीज़े दे दीं थीं, लेकिन जब बहुत दिनों बाद भी नाटक के मंचन की कोई सूचना नहीं मिली तो मैंने एक दिन वेद से पूछा – “अंधेरे में के मंचन का क्या हुआ?”
“पता नहीं, मुझे भी शेखर से मिले बहुत दिन हो गए हैं……मिला तो पूछूँगा” वेद ने जवाब दिया
मैं शेखर से कभी मिला नहीं था। उनका काम मैंने कुछ-कुछ देखा था। तब वे परिषद के सचिव भी नहीं थे…फ़्री-लांसिंग कर रहे थे। मुझे लगा था कि अंधेरे में की नियति भी कुछ वैसी ही है। कई रंग-निर्देशकों ने बताए, बिन बताए और बिना कोई रायल्टी दिए अलग-अलग शहरों में उसका मंचन किया था, पर यह कहानी अलग है और कभी अलग से ही इस बारे में लिखूँगा।
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मैं जल्दी से अपने वर्तमान में लौट आया और मैंने शेखर से पूछ ही लिया –“कहीं इस नाटक का हाल भी अंधेरे में जैसा होने वाला तो नहीं है” वे ज़ोर से हँसे और बोले – “नहीं प्रताप भाई, अंधेरे में जो नहीं कर सका, बताऊँगा……पर छोड़िए…यहाँ दिल्ली में लोगों ने मुझे बहुत तंग किया है…मुझे भाजपाई बना दिया है… बताइए मैं आपको भाजपा वाला दिखता हूँ…अब अन्वेषक करते हैं न……मैंने इसे सतीश को भी पढ़ने के लिए दिया है…या तो इसे मैं करूँगा या सतीश करेगा” फ़िर एक सप्ताह बाद ही शेखर का फ़ोन आया – “प्रताप भाई, सतीश को भी अन्वेषक अच्छा लगा है……मैं आफ़िस के कई चक्करों में फ़ँसा हूँ……सतीश तैयार है और वह आपसे मिलना चाहता है……कल दो बजे मेरे आफ़िस में ठीक रहेगा?”
“ठीक है” और अगले दिन मैं शेखर के आफ़िस पहुँच गया। सतीश सोफ़े पर जमे बैठे राजमाँ-चावल खा रहे थे। उठकर गले मिले और बोले – “एक प्लेट और मँगवा लो शेखर!”
“नहीं, मैं खाना खाकर आया हूँ……आप खालो, फ़िर बात करते हैं”
थोड़ी देर की चुप्पी के बाद ही खाते-खाते सतीश आनंद ने बातचीत का खाता खोला – “आपने नाटक तो बहुत अच्छा लिखा है और इसे खेलना भी तय है…बस एक बात थोड़ी खटक रही है”
मुझे समझने में एक पल भी नहीं लगा कि उन्हें क्या बात खटकी होगी। मैंने ही कहा –“कहीं आपका इशारा इस तरफ़ तो नहीं कि नाटक के अंतिम हिस्से में चिंतामणि और चूड़ामणि के अचानक हृदय-परिवर्तन का कोई तर्क नाटक में नज़र नहीं आता”
“हाँ, यही बात है, कोई तर्क तो होना चाहिए”
“मुझे भी यह बात हमेशा परेशान करती रही है……पर कोई तर्क मिल नहीं रहा था, अब मिल गया है तर्क……मैं इस दृश्य को फ़िर से लिखता हूँ…”
धर्म बनाम राष्ट्र की बहस कई सालों से ज़ोरों पर चल रही थी। ख़ासतौर पर बाबरी मस्जिद गिरने के बाद। उन दिनों केन्द्र में एन डी ए की सरकार थी। हिन्दुत्व बरक़्स इस्लाम की बहसें भी जारी थीं। मेरा मन कहीं इन सभी सवालों से जूझ रहा था। चिंतामणि और चूड़ामणि के लिए भी धर्म बनाम राष्ट्र का प्रश्न प्रासंगिक हो सकता था। और इसी तर्क ने इन दोनों के चरित्र में एक नया आयाम जोड़ दिया।
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अगले ही दिन मैंने उस दृश्य को पुन: लिखा और दूसरे दिन सतीश को सौंप दिया। सतीश मंचन की दृष्टि से अन्वेषक पर गंभीर तरीके से काम कर रहे थे। नाटक का पाठ शुरू हुआ। लगभग दस दिन बाद मैं भी रंग-मंडल के सदस्यों से जा जुड़ा। नाट्य-पाठ जारी था।
सबसे पहली दिक्कत कुछ कलाकारों के उच्चारण को लेकर थी। अन्वेषक की भाषा संस्कृत-निष्ठ है, लेकिन इतनी भी नहीं कि वह आम हिन्दी समझने वाले दर्शक के सिर के ऊपर से निकल जाए। कई अभिनेताओं के पास हिन्दी का संस्कार नहीं था। मैंने यह सवाल शेखर के सामने रखा – “ कई लोग तो ठीक से हिन्दी बोल भी नहीं पाते शेखर, कैसे करेंगे यह नाटक……”
“मुझे पता है प्रताप भाई, पर क्या करूँ…बजट इतना कम है और फ़िर सच बताऊँ तो मुझे और सतीश को भी अनट्रेंड लोगों के साथ काम करने में बड़ा मज़ा आता है……ट्रेंड एक्टर के साथ तो सभी काम कर लेते हैं……इनसे काम लेकर दिखाओ न……फ़िर अपने पास बजट भी इतना नहीं है कि सारे ट्रेंड एक्टर भर सकूँ” सतीश भी वहाँ मौजूद थे और उन्होंने शेखर की बात की ताईद की तो मैंने भी कहा –“चलो, पहले इनका तल्लफ़ुज़ ठीक करते हैं”
“पिछले एक हफ़्ते से वही तो कर रहा हूँ” सतीश ने कहा और फ़िर रोज़मर्रा की आने वाली कई परेशानियों का ज़िक्र किया।
अगले दिन मैं भी रीडिंग-सैशन में जा पहुँचा। जहाँ-जहाँ उनका उच्चारण खटकता, उसे मैं सुधारता जाता। यहाँ सतीश एकदम खामोश रहते और फ़िर अगले दो दिनों की बैठक में नाटक की पृष्ठभूमि और उसमें उठाए गए प्रश्नों पर बात होती रही। सभी अभिनेताओं को पाँचवीं शताब्दी और गुप्त-साम्राज्य के क्षीण होते समय में ले जाना बहुत ज़रूरी था और साथ ही यह बताना भी ज़रूरी था कि आर्यभट के अवदान गणित, ज्यामिति और खगोल-शास्त्र के क्षेत्र में कितने महत्वपूर्ण थे। मेरे पास आर्यभटीय के हिन्दी एवं अंग्रेज़ी में दो अनुवाद थे। उन अनुवादों के साथ टीकाएँ भी थीं। वे मैंने सभी कलाकारों को पढ़ने के लिए दीं। यह बात
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और है कि वे किताबें मुझे बाद में कभी भी वापिस नहीं मिलीं और नाहीं पता चला कि वे किताबें हैं किसके पास। इससे मुझे इस बात की खुशी हुई कि कोई तो है जो आर्यभट को हमेशा अपने पास रखना चाहता है।
सतीश आनंद ने सीन बाई सीन ब्लाकिंग कर दी और रिहर्सल होने लगी। शुरू में अभिनेताओं का हलन-चलन ठीक नहीं हो रहा था। उच्चारण की समस्या बार-बार आ रही थी और शब्दों का कोई कारगर स्थानापन्न भी नहीं मिलता था। उनके पास सिवाय अपना उच्चारण ठीक करने के और कोई विकल्प नहीं था। सबसे बड़ी समस्या नटी को लेकर थी। रंगमंडल में मदन डोगरा और दीक्षा ठाकुर ही प्रशिक्षित कलाकार थे। दीक्षा को केतकी के लिए चुन लिया गया था, तो अब नटी की भूमिका कौन करे? रंगमंडल में जितनी भी लड़कियाँ थीं, उनमें से किसी को भी नृत्य करना नहीं आता था और नटी की भूमिका के लिए कम से कम से लाइट क्लासिकल नृत्य की जानकारी ज़रूरी थी। नटी की भूमिका के लिए एक अदद अभिनेत्री की तलाश जारी थी। सतीश चिन्तित थे। उन्होंने सभी लड़कियों को उस भूमिका मे डाला, लेकिन उनमें से कोई भी अपेक्षित प्रभाव डालने में सफल नहीं हुई।
इसी बीच गीता कुम्हे का प्रवेश हुआ। वह नृत्य जानती थी। सुमुख और थोड़ी शोख़ थी। उसका उच्चारण भी ठीक था। उसे तुरंत रंगमंडल में शामिल कर लिया गया। उसने जब नाटक का पूरा ताना-बाना देखा तो उसने भी केतकी की भूमिका करने की इच्छा ज़ाहिर की। केतकी अन्वेषक की नायिका ठहरती है, इसलिए अब गीता और दीक्षा दोनों ही केतकी की भूमिका में उतरना चाहती थीं। लेकिन अंतिम निर्णय तो निर्देशक का होता है, सो सतीश ने गीता को समझाया कि केतकी की भूमिका तो दीक्षा को दी जा चुकी है और वह उस भूमिका के लिए ठीक भी है……इसलिए अब उसे बदलना संभव नहीं। फ़िर बहुत सारे नाटक होंगे तो उनमें देखा जाएगा। गीता कुम्हे ने अनमने मन से नटी की भूमिका स्वीकार कर ली और रिहर्सल के लिए उतर पड़ी। रंगमंडल की इन दो अच्छी अभिनेत्रियों के बीच ईर्ष्या का भाव पनपने लगा, जिसके बाद में घातक परिणाम हुए। शेखर को बेवजह कुछ अयाचित आरोपों का सामना करना पड़ा।
नाटक की रिहर्सल जारी थी। एक ओर नाटक में आए गीतों की धुनें बन रही थीं तो दूसरी ओर नटी एवं अन्य सभी पात्रों को कोरियोग्राफ़ी सिखा कर नृत्य-बिंबों की सर्जना की जा रही
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थी। उन्हें नृत्य-दृश्यों में बाँध रहे थे नरेश कुमार और धुनें बना रहे थे अब्दुल मलिक रज़ा। सबसे पहले गीत ‘जय जय जय रंगमंच हमारा’ की दो धुनें रज़ा ने तैयार की थीं और दोनों ही न तो सतीश को पसंद आ रही थीं और न मुझे। तीसरी धुन जो तैयार हुई वह कर्णप्रिय तो थी ही, कोरियोग्राफ़ी की दृष्टि से भी सटीक बैठ रही थी। अन्तत: उसे ही रिकार्ड किया गया। पहले दृश्य से पूर्व कर्टेन-रेज़र रखा गया है और मंगलाचरण के रूप में परंपरागत गणेश-वंदना से हटकर रंगमंच की परंपरा और सहृदय दर्शक-गण की वंदना की गई है। इस तरह से यह जड़ से चेतन की ओर लौटने की कोशिश है। नाटक की प्रस्तुति के लिए पार्श्व-संगीत भी साथ-साथ तैयार हो रहा था। रंगमंडल में क्योंकि प्रोफ़ेशनल-आवाज़े नहीं थीं, इसलिए गीतों को अलग से स्टूडियो में प्रोफ़ेशनल आवाज़ों के साथ रिकार्ड किया गया।
रिहर्सल जारी थी और मैं लगभग रोज़ ही नहीं तो एकाध दिन छोड़ कर वहीं जा बैठता। एक दिन सतीश ने दो सुझाव दिए। पहला यह कि केतकी के चरित्र में कुछ और आयाम जोड़े जाएँ। उसे एक साथ कोमल और अपनी पहचान बनाने वाली एक नारी के रूप में सामने आना चाहिए। केतकी के लिए एक कोमल सी कविता की ज़रूरत थी जो मैंने अगले ही दिन लिख कर दे दी। इस कविता के माध्यम से केतकी के चरित्र की संवेदनशीलता और भी गहरी हो जाती है। दूसरा केतकी के कुछ संवाद और जोड़े गए, जिससे उसके चरित्र को थोड़ी धार दी जा सके। शेष काम निर्देशन और अभिनय पर छोड़ दिया गया। गंगा के किनारे आर्यभट का इन्तज़ार करती हुई केतकी जब गुनगुनाने लगती है –‘कहीं झाँकता मृग-शावक सूने कोने से/और कभी गहरे काले घन घुमड़-घुमड़ कर/ बिन बरसे विचलित हो जाते’ और जब आर्यभट केतकी से कहता है – ‘तुम काव्य की भाषा बोलती हो और मैं अंकों की भाषा समझता हूँ तो फ़िर केतकी का जवाब कविता में ही मिलता है –‘मैं भी सीख गई हूँ अंकों की भाषा लेकिन/गणित नहीं मन का रहस्य/संबंधों का सौर-जगत/पेचीदा, झीना ओ’ गहरा है/कल-कल करती गंगा मन में/आवेग हिला देता अंदर तक/पर जीवन तट पर ठहरा है’। इन पंक्तियों से साफ ज़ाहिर हो जाता है कि केतकी आर्यभट से प्रभावित है, उसे प्रेम भी करती है लेकिन उसकी अपनी इयत्ता भी है। इसी तरह का अंतर्द्वन्द्व पूर्ण चरित्र ही केतकी को एक आधुनिक और कहीं परंपरा से बंधी हुई नारी की पहचान देता है। क्या वस्तुत: ऐसी ही नहीं है आज हमारे समाज की नारी। आधुनिकता और परंपरा के बीच कहीं संतुलन साधती हुई?
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नाटक के पुरुष पात्रों में आर्यभट और सम्राट बुद्धगुप्त के चरित्र सर्वाधिक चुनौती पूर्ण थे। आर्यभट के लिए मनोज राजपूत को चुन लिया गया था। उसकी उम्र और उसका क़द उसके पक्ष में थे। आवाज़ थोड़ी महीन थी। हिन्दी के कुछ शब्द और संस्कृत की दो-एक आर्याएँ बोलते हुए उन्हें दिक्कत आ रही थी। आर्यभट पूरे नाटक में दो जगह अपनी आर्याएँ बोलता है। एक विकल्प यह था कि उन आर्याओं को किसी शुद्ध संस्कृत बोलने वाली आवाज़ में रिकार्ड कर लिया जाए और मंच पर मनोज सिर्फ़ लिप-मूवमेंट करे। लेकिन मनोज ख़ुद ही उन्हें बोलना चाहता था। इसमें मैं उसकी जितनी मदद कर सकता था, मैंने की और लगभग एक सप्ताह के अभ्यास से मनोज ने उन आर्याओं को शुद्ध उच्चारण के साथ कंठस्थ कर लिया। लेकिन लाटदेव और निशंकु की भूमिका में उतरे पात्र बार-बार समझाने पर भी शुद्ध उच्चारण नहीं कर पा रहे थे और ग़लत उच्चारण के साथ दृश्य की प्रभावान्विति में फ़र्क़ पड़ता था। अभी हमारे पास समय था, इसलिए उनके उच्चारण पर काम जारी रहा।
बुद्धगुप्त की भूमिका के लिए मदन डोगरा का चुनाव किया गया। मदन पारसी शैली में प्रशिक्षित अभिनेता थे। उनका क़द आड़े आ रहा था। सम्राट के रूप में अक़्सर लंबे-चौड़े और संभव हो तो आजानु-बाहु व्यक्तित्त्व की कल्पना की जाती है। मेरे मन में भी ऐसा ही भाव था। मदन की आवाज़ दमदार और आरोह-अवरोह बिल्कुल ठीक थे। उच्चारण की भी कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं थी। एक तरह से उनकी दमदार मर्दाना आवाज़ और दृश्य को संभालने की क्षमता उनके क़द की क्षति-पूर्ति कर रहे थे।
चिंतामणि के लिए अय्याज़ ख़ान और चूड़ामणि के लिए दिनकर प्रसाद को चुना गया। इन दोनों पात्रों के बीच तालमेल और टाइमिंग बहुत ज़रूरी थी। संवादों की अदायगी में त्वरा और चेहरे के भावों का गिरगिट की तरह से बदलना ज़रूरी था। दोनों पढ़े-लिखे पात्र हैं, लेकिन अपने-अपने स्वार्थों के शिकार। वे महत्वाकांक्षी तो हैं ही, आर्यभट की सम्राट बुद्धगुप्त के साथ निकटता को भी बर्दाश्त नहीं कर पाते। आर्यभट की प्रतिभा को आपस में स्वीकार करते हुए भी सार्वजनिक तौर पर उसे स्वीकार नहीं कर पाते, बल्कि जहाँ भी अवसर मिलता है, उसका उपहास करते हैं। इनकी भूमिका इसलिये चुनौतीपूर्ण थी कि वे न तो विदूषक थे, न आज की ज़बान में मसख़रे। उन्हें अपने अभिनय में संयत रहते हुए भी इस तरह से इंप्रोवाइज़ करना था कि दर्शक हँसता भी रहे और सोचता भी रहे। अय्याज़ ख़ान तो चिंतामणि की भूमिका में
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इस तरह से प्रवेश कर गया कि यह सोचना भी मुश्किल हो गया था कि यह भूमिका कोई और भी कर सकता है। दिनकर प्रसाद न तो उतनी त्वरा से अपने संवाद बोल पा रहा था और नाहीं अपनी प्रतिक्रियाएँ ठीक से दे पा रहा था। धीरे-धीरे मंचन का समय पास आ रहा था और सतीश की चिंताएँ बढ़ती जा रही थीं।
सैट-डिज़ाइनिंग और कास्ट्यूम्स पर भी काम शुरू हो गया। सैट डिज़ाइनिंग और कास्ट्यूम्स खुद सतीश संभाल रहे थे और लाइट्स का संयोजन गुलशन बतरा कर रहे थे।
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शेखर ने सूचना दी कि 17,18,19 और 20 जुलाई के लिए श्रीराम सेंटर बुक कर लिया गया है। 17 का दिन सैट लगाने और मंच पर रन-थ्रू के लिए रखा गया था। यानी शेष तीन दिन तीन शो होने थे।
समय पास आ रहा था और अभी भी रिसर्सल सीन-बाई-सीन हो रही थी। मैं चाहता था कि रन-थ्रू शुरु हों तो अपने कुछ मित्रों को दिखा सकूँ। शायद उनकी ओर से भी कोई सुझाव हो तो उस पर बात की जाए। सतीश और शेखर दोनों परेशान थे कि अभी भी नाटक अपनी भव्यता के साथ सामने नहीं आ पा रहा था। एक दिन जमकर सैशन हुआ और एक-एक अभिनेता को उसकी कमियों से अवगत करवाया गया। ख़ासतौर पर लाटदेव और निशंकु का अभिनय करने वाले अभिनेता बहुत सुस्त थे। वे न तो संवाद ठीक से बोल पा रहे थे और नाहीं उनकी मूवमेंट्स ठीक हो रही थीं। एक पात्र के बोलते हुए दूसरे पात्र को जो प्रतिक्रियाएँ देनी चाहिएँ, वे प्रतिक्रियाएँ भी कम या फ़िर नहीं आ रही थीं। इस बात की ओर उन्हें सतर्क किया गया और जल्दी ही उसके परिणाम भी अच्छे मिलने लगे।
जुलाई का महीना शुरू हो गया और रन-थ्रू भी। पहला रन-थ्रू जब मैंने देखा तो मुझे विश्वास हो गया कि प्रस्तुति अच्छी जाएगी। अय्याज़ ख़ान और मदन की मैंने जमकर तारीफ़ की। गीता कुम्हे और दीक्षा भी अपनी-अपनी भूमिकाएँ ठीक से निभा रहीं थीं। शेष अभिनेताओं को और इम्प्रूव करने के सुझाव दिए गए। सतीश और शेखर दोनों मेरी ओर देख रहे थे। बाद में शेखर ने कहा – “प्रताप भाई, इनकी अभी ऐसे तरीफ़ मत करो यार, इनका दिमाग़ तो अभी से बिगड़ने लगेगा…मैं जानता हूँ न कलाकारों की जात को…मैंने ख़ुद सब किया है, देखा है”
“यार कोई अच्छा काम करता है तो उसकी तारीफ़ करनी चाहिए न”
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“अभी नहीं, शो ओपेन होने दो…तब अच्छा करेंगे तो काम की तारीफ़ होगी ही होगी”
मैं शेखर के तर्क से बहुत सहमत तो नहीं था लेकिन उसके बाद मैंने ख़ुद को यह मानकर संयत कर लिया कि प्रस्तुतियाँ अच्छी होने की अंतत: ज़िम्मेदारी तो सतीश और शेखर की है। पर मैं मन ही मन आश्वस्त हो चुका था कि नाटक अच्छा निकल रहा है। नाटक का अपेक्षित संदेश भी अपनी पूरी अर्थवत्ता के साथ रेखांकित हो रहा है।
दो दिन बाद मैं शशि, सादिक़ और राजकुमार मलिक को भी साथ ले गया कि देख सकूँ एक दर्शक के नाते उन पर क्या प्रभाव पड़ता है। उस दिन भी रन-थ्रू बहुत अच्छा रहा। तीनों नाटक के अंत में अवाक थे और तीनों की एक ही राय थी कि बहुत दिनों बाद एक अच्छा नाटक आ रहा है। मैं सतीश को कंप्लीमैंट कर रहा था और सतीश मुझे।
18 जुलाई पास आ रही थी। दिल्ली पर मानसून के बादल गहरे हो कर मंडरा रहे थे। मैंने शेखर से कहा भी था कि बारिशों के बाद नाटक खेला जाता तो ठीक रहता। बहरहाल श्रीराम सेंटर चार दिन के लिए बुक हो चुका था और 18 जुलाई को वही हुआ जिसका मुझे डर था। साढ़े छह बजे नाटक का ओपनिंग-शो था। सभी उत्साहित भी थे। मैं भी चार बजे श्रीराम सेंटर पहुँच गया था। मेक-अप शुरू हो चुकी थी और ठीक साढ़े चार बजे झमाझम बारिश होने लगी। मैंने सतीश से कहा – “आज का शो तो समझो धुल गया”
इधर मैं बारिश के बारे में सोच रहा था और उधर एक के बाद एक अभिनेता मेक-अप करवा कर सजते जा रहे थे। हर अभिनेता का बाह्य चरित्र साफ नज़र आने लगा था और अपने-अपने रूप में सभी प्रभावित कर रहे थे, लेकिन असली प्रभाव तो मंच पर नज़र आना था। मंच के बीचों-बीच अकेले सतीश अगरबत्तियाँ जला कर मौन आराधना में व्यस्त थे। इससे शायद उन्हें बल मिल रहा था।
एक घंटा धुँआधार बारिश हुई। सड़कें नहरें बनी हुईं थीं। एक घंटे की धुँआधार बारिश के बाद बूँदाबाँदी होने लगी और छह बजे के आसपास आसमान फटने लगा। मेरा दिल जुड़ने लगा। उम्मीद जगी कि कुछ लोग तो आ ही जाएँगे। हर अभिनेता, निर्देशक और लेखक में यह तमन्ना होती है कि वह अपनी कला के साथ ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचे। धीरे-धीरे लोग जुटने लगे और देखते-देखते सत्तर प्रतिशत के क़रीब हाल भर गया।
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आम दिनों में भी कई बार नाटक के दर्शकों की उपस्थिति इतनी ही या कई बार इससे भी कम होती है। दर्शकों में बड़ा वर्ग लेखकों और रंगकर्मियों का था। अक्सर यह शोर मचाया जाता रहा है कि हिन्दी में नए नाटकों की बहुत कमी हैं। इसी प्रश्न को ज़रा व्यापक स्तर पर देखा जाए तो किस भाषा में नाटकों की कमी नहीं है। किसी भी प्रदर्शनकारी कला और वह भी नाटक जैसी सामूहिक कला के लिए आलेखों की कमी महसूस होना कोई अनहोनी बात नहीं है। हिन्दी रंगकर्म का जिस तरह से पिछले पचास सालों में विकास हुआ है वह आह्लादकारी होने के साथ नई आशाओं और नई संभावनाओं को भी जगाता है। रंगकर्मियों के प्रति मेरे मन में एक सम्मान का भाव हमेशा रहता है लेकिन इसके बावजूद मुझे यह बात मानने में हमेशा कठिनाई रही है कि हिन्दी में नाटक नहीं हैं। इस आटिट्यूड के लिए स्वयं रंगकर्मी ज़िम्मेदार हैं। इस मसले पर मैं अलग से एक जगह लिख चुका हूँ, इसलिए वे सब बातें दोहराने की यहाँ ज़रूरत नहीं है। यहाँ तो मुझे सिर्फ़ इतना कहना है कि जब भी कोई निर्देशक हिन्दी का कोई नया नाटक उठाता है तो उसे देखने की उत्सुकता होना स्वाभाविक है।
नाटक समय से शुरू किया गया और पर्दा उठते ही संगीत के साथ सभी कलाकारों द्वारा मंगलाचरण ‘जय जय है रंगमंच हमारा’ अपनी पूरी ऊर्जा के साथ पेश हुआ। किसी भी नाटक की प्रस्तुति की शुरुआत और ज़्यादा से ज़्यादा पहले दस मिनिट अगर दर्शक को बाँध लेते हैं तो समझिए कि नाटक के मंचन ने अपनी सफलता के पहले सोपान पर अपना कदम रख लिया है। मेरा नाटक था, मैं इसकी रिहर्सलें पिछले दो महीने से देख रहा था। मुझे प्रस्तुति अच्छी लग रही थी और मैं मान रहा था कि नाटक अपनी पूरी त्वरा के साथ दर्शकों को प्रभावित करेगा। यह मेरा नितांत सब्जैक्टिव नज़रिया था। लेकिन जब हर दृश्य के बाद तालियाँ बजने लगीं तो मुझे लगा कि आम दर्शक को यह नाटक पसंद आ रहा है। थियेटर देखने का अभ्यस्त दर्शक या फ़िर बौद्धिक-वर्ग या तो नाटक के ख़त्म होने के बाद ताली बजा कर सभी कलाकारों का अभिवादन करता है या फ़िर कोई ऐसा मार्मिक स्थल हो कि उससे रुका ही न जाए तो वह ताली बजा कर अभिनय के उस क्षण विशेष का अभिनंदन करता है। यहाँ जो करतल-ध्वनि बार-बार सुनाई दे रही थी, उससे मेरा उस्ताह बढ़ रहा था तो अभिनेताओं का तो बढ़ ही रहा होगा। मैं देख रहा था कि शेखर आडिटोरियम की एक दीवार
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के साथ ख़ुद को टिका कर नाटक देख रहे थे और सतीश लाइट-बाक्स में प्रकाश-व्यवस्था संभाल रहे थे। पहले दिन नाटक देखने आए मेरे मित्रों की संख्या कोई कम नहीं थी। जहाँ तक मुझे याद है मंचन के पहले दिन जोगिन्दर पाल, कृष्णा पाल, सादिक़, देवेन्द्र इस्सर, नरेन्द्र मोहन, गुरचरण सिंह, रोमेश चन्दर, अजित राय, संगम पांडे, सी डी सिद्धू, महेश आनंद, जितेन्द्र कौशल, देवेन्द्रराज अंकुर आदि अनेक लेखक, रंगकर्मी तथा पत्रकार आदि उपस्थित थे। मेरे परिवार में से शशि, प्रशान्त, महेन्द्र, राजेन्द्र, शालिनी और धीरज आदि ने भी पहले ही दिन नाटक देखा।
पहले दिन की प्रस्तुति मेरी अपेक्षा से भी अच्छी हुई। इसका प्रमाण मुझे दर्शकों की करतल-ध्वनि और कुछ लेखक-मित्रों की तत्काल प्रतिक्रियाओं से मिला। जोगिन्दर पाल ने मुझे बहुत ही स्नेह के साथ गले लगाते हुए कहा कि लिटरेचर में जो काम हम नहीं कर सके, आप कर रहे हो। आपने सही मायनों में प्रगतिशीलता का मतलब समझ लिया है। उनकी आँखों से झलकता संतोष मैं पढ़ सकता था। रोमेश चन्दर ने बधाई देते हुए पूछा – “आपने कब लिखा था यह नाटक?” मैंने बताया –“पाँच-छह साल पहले, इससे पहले यह बिहार में खेला जा चुका है” “यह आरिजनल स्क्रिप्ट है या कुछ चेंजेज़ हैं?” यह उनका दूसरा सवाल था – “आरिजनल स्क्रिप्ट में कुछ चेंजेज़ मैंने की हैं” उन्होंने मेरा फ़ोन नंबर लिया और कहा कि वे बाद में मुझसे बात करेंगे। लेकिन अपनी समीक्षा लिखने से पहले उन्होंने मुझसे कोई बात नहीं की और इस नाटक को देखने की सिफ़ारिश करते हुए उन्होंने ‘दि हिन्दू’ में लिखा-‘नाट टू बी मिस्ड’। अन्य लेखक-मित्रों से मिलती गर्म-जोशी भरी बधाईयाँ मुझे बार-बार आश्वस्त कर रही थीं। जब मैं हाल से बाहर निकला तो देवेन्द्र इस्सर किसी का इंतज़ार करते खड़े मिले। उन्होंने भी गर्मजोशी से मेरा हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा – “प्रताप साहब, बहुत अच्छा नाटक लिखा है आपने” और उन्होंने जोगिन्दर पाल की तरह से अपने पुराने दिनों और प्रगतिशील आंदोलन को याद किया। देवेन्द्र इस्सर बहुत कम बोलते हैं पर जो भी बोलते हैं वो महत्वपूर्ण होता है। उनकी टिप्पणी मेरे लिए अतिरिक्त उत्साह का सबब थी। अगले दिन राष्ट्रीय सहारा ने इसे एक अच्छे हिन्दी नाटक का सफल मंचन बताया। तो जनसत्ता में संगम पांडेय, राष्ट्रीय सहारा में अजित राय ने लंबे लेख लिखते हुए नाटक में उठाए गए प्रश्नों और प्रस्तुति की कामयाबी को रखांकित किया। अगले दिन देवेन्द्र राज अंकुर ने फ़ोन पर कहा –
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“अरे भाई, आपने ऐसा क्या लिख दिया कि हर अख़बार में लोग लिख रहे हैं?” “कुछ सवाल तो हैं न नाटक में……अब नाटक छपे हुए तो कई साल हो गए हैं…भई पढ़ा तो तुमने भी था और कहा था कि इस नाटक का मंचन होना चाहिए, सो हो गया……मैं तो इसका क्रेडिट शेखर और सतीश को देता हूँ” “मैंने आज नामवर सिंह को बताया है और कहा है कि उन्हें यह नाटक ज़रूर देखना चाहिए…आजकल वे धर्म और राष्ट्र पर कुछ काम भी कर रहे हैं…शायद वे आज या कल आएँ”, कहकर देवेन्द्र ने फ़ोन रख दिया। ‘सहारा समय’ के अगस्त के अंक में उन्होंने ‘नाटक में इतिहास के पात्र’ को एक थीम बनाते हुए एक लेख लिखा जिसकी शुरुआत अन्वेषक के पात्रों से करते हुए हिन्दी नाटकों पर अपनी बात की।
नाटक के दो दिन अभी बाकी थे और आकाश पर गहरे काले बादल भी। दूसरे दिन मैंने देखा कि दर्शकों का जमावड़ा पहले दिन से ज़्यादा है । शायद यह बात मौखिक रूप से फ़ैल गई थी कि बहुत दिनों बाद एक बेहद अच्छे नाटक का मंचन हो रहा है और इसे देखा जाना चाहिए। पहले दिन आए जितेन्द्र कौशल ने यह बात सतीश से कही भी थी कि इस साल अभी तक का यह सबसे अच्छा नाटक है। दूसरे दिन के दर्शकों में महीप सिंह, कुसुम अंसल, अशोक कुमार, प्रेम जनमेजय, दिविक रमेश, सुरेंद्र तिवारी, हरीश नवल, सुधा नवल, ओम प्रकाश आदि अनेक लेखक-मित्र मौजूद थे। हाल ऊपर गैलरी तक खचाखच भरा हुआ था। सभी अभिनेताओं में अदभुत उत्साह आ गया था। दूसरे दिन की प्रस्तुति और भी मंज कर सामने आई और फ़िर वही बधाईयों का सिलसिला।
तीसरे दिन का आलम यह था कि हम पहले दिन की बारिश को मामूली बारिश समझने लगे थे। बारिश लगातार हो रही थी। ज़रा सी धीमी हुई तो हम घर से निकले लेकिन मदर टेरेसा क्रिसेंट तक पहुँचते-पहुँचते गाड़ी के आधे पहिए पानी के अंदर थे और यह डर लग रहा था कि गाड़ी कहीं भी खड़ी हो सकती है। पहले-दूसरे गियर में गाड़ी चलाते-चलाते जैसे-तैसे हम श्रीराम सेंटर तक पहुँच ही गए। और फ़िर वही हुआ। छह बजे क़रीब बारिश थमने लगी। सड़कों पर उफ़नता पानी नीचे उतरने लगा।
ठीक साढ़े छह बजे नामवर सिंह और उस समय राष्ट्रीय सहारा के कार्यकारी संपादक (जिनका नाम मुझे इस समय याद नहीं) आए। तब तक मैं और शशि बाहर फ़ोयर में ही खड़े हुए थे। हम दोनों ने उन दोनों का अभिवादन किया और उन्हें आडिटोरियम के अंदर ले गए। हमारे
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डर के विपरीत आडिटोरियम खचाखच भरा हुआ था। ऊपर गैलरी तक और कुछ दर्शक नीचे बैठे हुए थे और कुछ आडिटोरियम की दोनों ओर की दीवारों के साथ सटे खड़े थे। यह हमारे लिए कुछ अचरज भरी बात थी। दर्शकों में बैठे दिनेश दीक्षित, पुष्पलता तनेजा, वीरेन्द्र सक्सेना और सत्येंद्र तनेजा मुझे नज़र आ रहे थे।
उस दिन शो अपने निर्धारित समय से दस मिनिट देर से शुरू हुआ। पहले दो दिनों की ही तरह से आज भी दर्शकों की तालियों का सिलसिला जारी था। दर्शकों से मिली ऐसी प्रशंसा हम सबके लिए बहुत उत्साह-वर्द्धक थी और शेखर ने मुझसे बाद में कहा भी था –“प्रताप भाई, इस नाटक को हम और शहरों में भी ले जाएँगे”
उस रोज़ भी कई लेखक-बंधु आए थे और उनकी बधाईयाँ भी मिलीं थीं। नाटक ख़त्म होने के बात नामवर सिंह ने मुझसे मुख़ातिब होते हुए कहा – “यह है एक लेखक का जवाब”। दरअसल तब केंद्र में एन डी ए की सरकार थी, जिसके मुख्य घटक के रूप में भाजपा थी और हिन्दुत्व बनाम सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की चर्चा ज़ोरों पर थी। सांप्रदायिकता बनाम धर्म-निरपेक्षता बनाम छद्म धर्म-निरपेक्षता, शिक्षा का स्वरूप आदि कई प्रश्नों पर प्रगतिशील शक्तियों और पुरातन-पंथी अवरोधकारी शक्तियों के बीच बहस जारी थी। इन्हीं बहसों के संदर्भ में ही संभवत: उन्होंने यह टिप्पणी की थी।
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उसके बाद तो यह नाटक कई बार खेला गया। संगीत-नाटक अकादेमी के स्वर्ण-जयंती समारोह में तमाम भारतीय भाषाओं के जो कुछ इने-गिने नाटक खेले गए, उनमें से यह भी एक था। हालात कुछ ऐसे बने कि परिषद रंगमंडल भंग हो गया। चंडीगढ़ में हुए एक राष्ट्रीय नाट्य-महोत्सव में भी इसी नाटक से समारोह की ओपनिंग हुई। चंडीगढ़ में यही नाटक अभिनव भारती के बैनर तले खेला गया। वही निर्देशक, दो-तीन लोगों को छोड़ वही कलाकार और प्रस्तुति का वही गठन। वहाँ भी प्रस्तुति बहुत पसंद की गई। तीन विश्वविद्यालयों में यह पढ़ाया जाने लगा। कालीकट में तो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा प्रायोजित एक राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन भी हुआ। साहित्य कला परिषद के रंग-मंडल के बिखर जाने के बाद इसका मंचन केवल एक बार ही हो पाया। शायद भविष्य के गर्भ में अभी कुछ और हो।