मंगलवार, 24 मई 2011

Priykaant: parjeevi darshan ka bi-product


मेरे नए उपन्यास प्रियकांत पर रामजी यादव ने एक समीक्षताम्क आलेख लिखा है. मुझे लगता है की प्रियकांत पर रामजी ने गंभीरता पूर्वक लिखा है. मुझे अच्छा लगा और चाहा  कि इसे अपने मित्रों से शेयर करूँ. आप पढेंगे तो आपके मन में भी कई प्रश्न उठेंगे और शायद प्रियकांत पढ़ने की जिज्ञासा भी हो.



प्रियकांत: परजीवी दर्शन का बाई-प्रोडक्ट



रामजी यादव



बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में उभरे हिन्दू पुनरुत्थानवाद और आध्यात्मिक बाज़ार ने भारत के सामाजिक विकास को एक ऐसे चरण में पहुँचा दिया था जहाँ से जन-साधारण और संस्कृति के अन्तर्संबंध बहुत जटिल ही नहीं प्राय: जन-विरोधी भी होने लगे थे। उन्नसवीं और बीसवीं सदियों के संधिकाल और आगे के कुछ दशक अध्यात्म की सामाजिक भूमिका का कालखंड रहा है। स्वामी रामतीर्थ, विवेकानंद, श्रद्धानंद, महर्षि अरविंद, सहजानंद सरस्वती, बाबा रामचन्द्र, दयानंद, नारायण गुरू, गाडगे बाबा, अछूतानंद जैसे अनेक चमकते सितारों ने इस काल मे वृहत्तर सामाजिक दायित्त्वों का निर्वाह किया और जन-मन में अपना अमिट स्थान बनाया। लेकिन बाद का समय महेश योगी और चंद्रा स्वामी जैसे लोग घेरते गए जो अपने समय की सत्ताओं से चिपके रहे। योग, तंत्र, प्रवचन की खिचड़ी इतनी स्वादिष्ट बनी कि इसके बाद आध्यात्मिक गुरुओं की फ़ौज खड़ी हो गई। बाज़ार और मीडिया ने उन्हें इतना हाइप और प्रचार दिया कि वे घर-घर पहुँच गए। आसाराम, सुधांशु, अम्मा, शनिदेव जैसे अनेक लोग मीडिया के चेहरे और ज़रूरत बन गए और रामदेव ने तो खाये-अघाये उच्च और मध्य-वर्ग को हिलाकर ही रख दिया। यहाँ तक कि योग को बेचने की हज़ारों अन्य दुकानें भी जगह बनाने लगीं। इस ऊपरी परिदृश्य के पीछे कितने लोमहर्षक षड्यंत्र और अमानवीय कृत्य होते हैं, यह एक अकथ कथा है।



प्रताप सहगल का उपन्यास प्रियकांत एक ऐसी ही दुनिया का आख्यान है। कुल एक सौ ग्यारह पृष्ठों के इस उपन्यास को एक लंबी कहानी की तरह पढ़ा जा सकता है लेकिन इसका

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वितान बहुत बड़ा है। मौलिक रूप से यह उपन्यास आर्य समाज की नई कतारों और उसकी परम्परा की द्वंद्व कथा है। खासतौर से भारतीय सामाजिक संरचना के भीतर आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक रूप से अमानवीय स्थितियों में जीने को अभिशप्त समाजों द्वारा धार्मिक सत्ता के अस्वीकार के बरक़्स आर्यसमाज का अतीत भी घोर पुनरुत्थानवादी परम्परा ही है परन्तु उपन्यासकार ने इस राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को छोड़ दिया है। दर असल यह उस अतीत का नई प्रवृत्तियों के समानान्तर उदगान है जिसका एक व्यापक भूगोल में गहरा असर रहा है। आर्य समाज ने पश्चिम भारत (आज के पाकिस्तान के अधीकांश हिस्सों समेत) के तत्कालीन पैटी बुर्जुआ समाजों को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया है। ज़ाहिर है यह पैटी बुर्जुआ समाज हिंदुओं की मध्यवर्ती जातियों का प्रभावशील तबका था जिसका खेती और खुदरा व्यवसाय पर वर्चस्व था। आर्य समाज ने अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए इसी समाज में अपनी जड़ें जमाईं। प्रियकांत की अवांतर कथाओं में भी स्पष्ट रूप से इसी प्रवृत्ति को देखा जा सकता है। इस रूप में यह उपन्यास महज़ प्रियकांत के जीवन की कथा मात्र नहीं है बल्कि उस पूरी मिट्टी की कथा है जहाँ से अनवरत एक अनुत्पादक वर्ग की फ़सल पैदा हो रही है। यह फ़सल पाखंड, अंधविश्वास, संकीर्णता, साम्प्रदायिकता, असमानता और लोकतंत्र विरोध के बीज किस मात्रा में जन-मानस में फ़ेंक रही है, वास्तव में प्रियकांत की रचनात्मक उपलब्धि यही दिखाना है।



अपने गुरू की मर्यादाओं से बंधा प्रियकांत वस्तुत: अपनी पहचान को लेकर बेचैन है। उसका विचलन इसी पहचान को लेकर होता है जो एक आध्यात्मिक सत्ता पाने के बावजूद रुकता नहीं बल्कि और भी अस्थिर होते हुए अन्तत: उसे ध्वस्त कर देता है। यह एक ऐसी त्रासदी की तरह घटित होता है जिसमें लोभ, लालच, चालाकी, धार्मिक कुटिलता, गुंडागर्दी, धोखाधड़ी और षड्यंत्र की अनेक लोमहर्षक कथाएँ हैं। ये कथाएँ स्वतंत्र भारत में तेज़ी से पनपे एक ऐसे तंत्र की भयावह दुनिया को सामने लाती हैं जहाँ हर तरफ़ एक मूल्यहीनता की पराकाष्ठा है लेकिन धर्म के आवरण में उसे सबसे बड़ा मूल्य बना दिया गया है।





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यह एक और महत्त्वपूर्ण संकेत करता है कि धर्म और अध्यात्म किस तरह भौतिक सत्ता पर काबिज़ शोषक वर्ग के उद्देश्यों और आकांक्षाओं को अधिक फलदायी और शक्तिशाली बनाता है। हालांकि प्रियकांत में चित्रित दुनिया मध्यवर्ग की दुनिया है लेकिन इस परजीवी वर्ग के शिकार उत्पादक वर्गों के सांस्कृतिक संकटों और शोषण के अनवरत चक्र में फंसते जाने की परोक्ष कथाएँ भी मानो इस दृश्य पटल पर चलती रहती हैं। इतिहास में इसे हम धार्मिक पहलकदमियों की उस श्रंखला में भी आसानी से देख सकते हैं जिसमें तथाकथित सामाजिक उत्थान और ब्रिटिश उपनिवेश से मुक्त होकर ‘अपना राज्य, अपना शासन और अपना आधिपत्य’ प्राप्त करने की प्रबल आकांक्षाएँ पैदा की गईं। इस प्रकार बहुत साफ तौर पर यह सामने आता है कि धर्म और अध्यात्म की वर्तमान यात्रा रोशनी और अंधेरे का कितना सटीक गठजोड़ कर रही है और वह किस तरह शोषण की चरम सत्ता का उपयोगी हथियार है।



प्रियकांत महज़ प्रियकांत की कहानी नहीं है। वह विभाजन के बाद फ़िर से अपनी जड़ें जमाने के बाद भोगेच्छा और लालसाओं से भरे गुलशन और घनश्याम, अपनी कुंठाओं और अकर्मण्यताओं से जनित असफलता से निजात पाने की अंधी कोशिशों में मुब्तिला शेखर, लगातार आत्मलिप्त और स्व-केंद्रित होते जा रहे बुद्धिजीवी नीहार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता का पक्षधर होने के बावजूद पारिवारिक सुरक्षा के लिए पलायन करने वाले पत्रकार चिंतन के बहाने धार्मिक उन्माद के नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बनते लोकतंत्र के चौथे खंभे, जनसामान्य से उस्तादी करने वालों की कमज़ोरियों से लाभ उठाने में उस्ताद कमलनाथ और ऐसी ही सफेदपोशी में माहिर माधव की कहानी है। और कुल मिलाकर यह एक ऐसी डरावनी दुनिया है जिसकी जड़ें समाज में बहुत गहरी हैं



अगर उपन्यास के पात्रों के जीवनकाल और घटनाओं की तफ़सील को ध्यान में न लाएँ तो भी इसकी टाइम लाइन पाठक के मन में एक खटका पैदा करती है कि लगभग डेढ़ दशक की कथा इतनी जल्दी खत्म होती जा रही है। डेढ़ दशक इसलिए कि 1992 के बाद के धर्मोन्माद

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को यहाँ विशेष अभिलक्षणों के साथ चित्रित किया गया है। ‘आध्यात्म बाज़ार’ के एक विशेष काल में स्थानीय और राष्ट्रीय प्रवृत्ति की धार्मिक कुटिलता को लगभग दो समानांतर कथाओं के सहारे दिखाया गया है कि ज़माने की हवा देखकर कैसे गुलशन जैसा ‘पतित’ व्यक्ति स्थानीय मोहरों का इस्तेमाल करता है। वह बड़ी चतुराई से न केवल धार्मिक उन्माद का उपयोग करता है बल्कि सबसे सम्मानित बुज़ुर्ग ‘बाऊजी’ के रूप में प्रतिष्ठित भी हो जाता है। वह दर असल ‘आध्यात्म बाज़ार’ का स्थानीय प्रतिनिधि है। उसके अतीत और वर्तमान की तफ़सील न होने के बावजूद इस उपन्यास की टाइम लाइन में एक ऐसे ठेठ चरित्र के रूप में विकसित हुआ है कि जिस पर बार-बार ध्यान जाता है। गुलशन वस्तुत: स्वातंत्र्योत्तर भारत की शहरी व्यवस्था का एक ऐसा सदस्य है जो कई पुरानी अवधारणाओं को तोड़ता और नई अवधारणाओं की जगह बनाता है।



दूसरी ओर प्रियकांत और अधिक जटिल संरचना को लेकर सामने आता है। अपने कद-बुत और लालसाओं आकांक्षाओं से बाहर वह एक ऐसी राष्ट्रीय प्रवृत्ति का रूपक दिखाई देता है जिसमें ऊपर से नीचे तक एक भयानक भूख दिखती है लेकिन भक्ष्य-अभक्ष्य ज्ञान दर किनार है। सभी को एक शिखर चाहिए। चाहे इसके लिए कितना भी नीचे क्यों न गिरना पड़े। स्वयं प्रियकांत आर्य समाज की अपनी शिक्षा और उसके संस्कारों को अपने विकास में एक रोड़ा मानता है। यह प्रक्रिया इतनी धीमी और सहज ढंग से पूरी होती है कि लगता है गोया वैष्णव की फिसलन हो रही है। जो प्रियकांत इस्कान वालों की मूर्तिपूजा को पाखंड समझता है वही एक दिन अपने सत्संग में मूर्तियाँ रखने लगता है। उसका मूल ध्येय किसी धार्मिक या आध्यात्मिक परम्परा का निर्वाह है भी नहीं। वह तो अपनी सारी चतुराई बेशुमार दौलत कमाने और मीडिया का जाना-पहचाना चेहरा बन जाने में ही अपनी मंज़िल देखता है। इसके लिए वह शेखर जैसे समर्पित भक्त का भी एक झटके में पत्ता साफ कर देता है। यह सब उसकी एकछत्रता और निरकुंशता के लिए ज़रूरी भी है। और इसका अंत हेमा के सान्निध्य में होना भी। दर असल एक बार प्रियकांत जब एक बार माया की दलदली ज़मीन पर चलने लगता है तो गले तक पंक में डूब जाना उसकी नियति बन ही जाती है।



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उपन्यासकार ने प्रियकांत को किसी सहानुभूति के लायक नहीं बनाया है बल्कि बीसवीं- इक्कीसवीं शताब्दी के पाखंडी मध्य-वर्ग और उसके सहज उत्पादों को एक माडल के रूप में रखते हुए समाज के एक व्यापक हिस्से के सड़ चुके होने की तस्दीक करता है। इस सडांध में शेखर जैसों की त्रासदी, नीहार जैसे लोगों की नपुंसक बौद्धिकता और चिंतन जैसे लोगों का लोकतांत्रिक शक्तियों और संस्थाओं पर घटते भरोसे और सामाजिक जवाबदेही से पलायन बहुत स्वाभाविक लगता है। पाब्लो नेरुदा के शब्दों में यह सड़ चुके तनों और खोखली हो चुकी जड़ों का रूपक है। इस रूप में यह भारतीय शहरी मध्य-वर्ग के निरर्थकता बोध और दिशाहीनता का भी आख्यान है जहाँ पुरानी खाद पानी से नई फ़सल नहीं बल्कि बदबूदार माहौल का ही ज़्यादा विकास दिखता है। यह उपन्यास एक तरह से मीडिया के उस चरित्र की भी बहुत सख़्त पड़ताल करता है कि किस प्रकार वह कुछ चेहरों को रातों-रात महान बना देता है और ऐसे ही किसी चेहरे को सनसनी का विषय बनाकर पतन के गर्त में गिरा देता है।



इस रोचक उपन्यास को पढ़ते हुए भारतेंदु हरिश्चंद्र की ‘अंधेर नगरी’ की बार-बार याद आई। अंधेर नगरी की चमक में एक चेला मौत के मुँह तक चला जाता है और बचाव के लिए गुरू को पुकारता है। इस उपन्यास का नायक भी अपने गुरू की ही शरण में जाता है। लेकिन इस बार गुरू उसे उबारने की प्रक्रिया में भ्रष्ट राजा को उसकी मूर्खता का शिकार नहीं बना पाता। क्योंकि चेला अपने कुत्साओं से उबरने योग्य नहीं रह गया है। उपन्यास के अंत में प्रियकांत और प्रियांशु एक दूसरे में डिज़ाल्व होते दिखते हैं।



यह दर असल इतिहास के दो पड़ावों पर सृजित कृतियों के समयांतराल और यथार्थांतराल की रचनात्मक उपलब्धियाँ हैं