शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

अर्थहीन नहीं है सब

अर्थहीन नहीं है सब

जब ज़मीन है
और पांव भी
तो ज़ाहिर है
हम खड़े भी हैं

जब सूरज है
और आंखें भी
तो ज़ाहिर है
प्रकाश भी है

जब फूल है
और नाक भी
तो ज़ाहिर है
खुशबू भी है

जब वीणा है
और कान भी
तो ज़ाहिर है
संगीत भी है

जब तुम हो
और मैं भी
तो ज़ाहिर है
प्रेम भी है

जब घर है
और पड़ोस भी
तो ज़ाहिर है
समाज भी है

जब यह भी है
और वो भी
यानी नल भी
जल भी और घड़ा भी
तो ज़ाहिर है
घड़े में जल भी है
अर्थ की तरह
और
आदमी है समाज में
हर प्रश्न के
हल की तरह .