मंगलवार, 8 सितंबर 2009

विरोधी ध्रुवों के बीच

जो इंसान हम कविता में बुनते हैं
उसी की तलाश हम सड़कों पर करते हैं
जो आँखें हम कविता में रचते हैं
उन्हीं आंखों को हम गली के मुहाने पर
कोई अनाम सत्य खोजते हुए
देखना चाहते हैं
जो सपने हम गुफाओं में उकेरते हैं
उन्हें हम चिलचिलाती धूप में
जिंदा रखना चाहते हैं
संबंधों की ऊष्मा का पानी
जो उड़ चुका है भाप बनकर
उसीकी भागीरथी हम
जीवन में उतारना चाहते हैं
बर्तनों की असलियत पर
कलई चढा चढा कर
एक चमक पालना चाहते हैं
पेडों की जड़ों में
स्वार्थ का तेजाब डाल डाल कर
उन्हें हरा रखना चाहते हैं
पर्वतों के पांवों को रेत में बदलकर
करना चाहते हैं उन्हींके ऊंचे शिखर
पोखरों में उतरकर
करते हैं समुद्र मंथन

इन विरोधी ध्रुवों के बीच
जो एक खुला मैदान है
वहीं हम
खेलने से हैं बचते
नहीं
कभी भी नहीं
ख़ुद को अपनी ही कसौटी पर कसते ।