सोमवार, 17 दिसंबर 2018


 10 जनवरी, 2019 से गिरिजाकुमार माथुर का जन्मशती वर्ष शुरू होता है। उनके साथ मेरा काफी वक़्त बीता है। कुछ स्मृतियाँ उनसे जुड़ी हुई  आपको रुचिकर लगेंगी।
स्मृति में गिरिजाकुमार माथुर: क्या लिखूँ क्या छोड़ूँ

                                  
प्रताप सहगल

उलझाव की भी कोई सीमा होती है क्या? शायद हाँ, शायद नहीं। गिरिजाकुमार माथुर के साथ मेरी स्मृतियाँ उलझी हुई हैं। कौन सी स्मृति को पहले दर्ज करूँ, किसे बाद में, यह तय करना कठिन हो रहा है। कठिन इसलिए कि उनके साथ कई शामें एक साथ गुज़री हैं। दिन में कई बार फोन पर और कई बार उनकी फिएट कार में घूमते हुए लंबी बातें की हैं। कविता और दुनियाँ-जहान की बातें कीं। इसलिए स्मृति में बहुत कुछ उलझ गया है। उलझाव का एक सिरा पकड़कर अपनी बात कहने की कोशिश करता हूँ।
वह फरवरी, 1981 की कोई शाम थी, जब मैंने उनसे पहली बार फोन पर संपर्क किया एक गोष्ठी की अध्यक्षता करने के लिए। 1980 की बात है कि नरेन्द्र मोहन के साथ हुई एक बैठक में मैंने यह विचार रखा कि साहित्य और कला का एक ऐसा मंच शुरू किया जाए, जिसमें हर विचारधारा से जुड़े लेखक तथा अन्य जन अपनी भागीदारी कर सकें। वाम और दक्षिण का झगड़ा तब भी था, आज भी है। विचारधाराएँ हैं तो उनका प्रतिनिधित्त्व करने वाली शक्तियों के बीच संघर्ष रहेगा ही। संघर्ष रहे, लेकिन सभी खुले मन से एक मंच पर जुटें। इसी विचार से मैंने 'गवाक्ष' नाम से एक मंच शुरू करने का विचार रखा। मित्रों ने इसका स्वागत किया। पहली दो अनौपचारिक बैठकें सुरेश धींगड़ा के निवास पर हुईं और सिलसिला आगे बढ़ने लगा। लोग जुड़ने लगे। तीसरी बैठक नरेन्द्र मोहन के निवास तो चौथी बैठक विनोद शर्मा के घर हुई। अब विचार बना कि इस मंच की बैठकें लेखकों के निवास से बाहर भी हों। इस तरह से पाँचवीं बैठक बाराखंभा रोड पर हुई, जिसकी अध्यक्षता हरिवंश राय बच्चन ने की। अभी तक गिरिजाकुमार माथुर हमारे साथ नहीं जुड़े थे। हम गिरिजाकुमार माथुर और उनके काव्य-संसार पर चर्चा करते रहते थे, लेकिन मेरा उनके साथ निकट का संबंध नहीं था।

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उन दिनों बाबा खड़गसिंह मार्ग पर स्थित राजस्थान सूचना केन्द्र ने यह सुविधा जुटा दी थी कि साहित्य से जुड़ी गोष्ठियाँ वहाँ हो सकें। 28 फरवरी, 1981 को यहीं पर एक गोष्ठी करना तय हुआ। वस्तुत: कविता मूल्यांकन की दो गोष्ठयाँ करना तय हुआ। पहली गोष्ठी 28 फरवरी, 1981 को और दूसरी गोष्ठी 16 मई, 1981 की शाम को हुई। पहली गोष्ठी की अध्यक्षता के लिए गिरिजाकुमार माथुर और दूसरी के लिए केदारनाथ सिंह का नाम तय किया गया। इसी उद्देश्य से मैंने पहली बार माथुर साहब को फोन किया और उनकी स्वीकृति ली। इसी गोष्ठी में औपचारिक रूप से निमंत्रण देने के लिए मैं और नरेन्द्र मोहन उनके जनकपुरी वाले निवास पर पहुँचे। यह मेरी उनसे पहली मुलाकात थी।
कविता मूल्यांकन गोष्ठी की यह शाम उत्तेजक बहस की शाम थी। गंगाप्रसाद विमल, यश गुलाटी और सुखबीर सिंह ने अपने आलेख पढ़े तो अजित कुमार ने चर्चा की शुरुआत की। राजस्थान सूचना केन्द्र का गोष्ठी-कक्ष खचाखच भरा हुआ था। बोलने वालों में सुधीश पचौरी, बलदेव वंशी, नरेन्द्र मोहन, रामदरश मिश्र, ओंकारनाथ श्रीवास्तव आदि अनेक कवि मित्रों एवं आलोचकों ने अपनी-अपनी राय रखी, जिसे गिरिजाकुमार माथुर ने समेटते हुए और हिन्दी कविता के इतिहास का झरोखा खोलते हुए समकालीन कविता पर भी अपनी राय रखी।
इस गोष्ठी के बाद ही उनके साथ मेरा नैकट्य बना। उसी रात और अगली सुबह उनके साथ कविता गोष्ठी में हुई चर्चाओं के बहाने कविता पर लंबी बातें शुरू हुईँ। वे हमारे लिए कविता का जीवित इतिहास थे। निराला और शिवमंगल सिंह सुमन के लिए उनके मन में खास जगह थी। जगदीश चतुर्वेदी और अशोक वाजपेयी को वे उनके बचपन से जानते थे। बाद में हुई बातों से यह भी पता चला कि उनकी कविताओं को कैलाश वाजपेयी बेहतर तरीके से समझते थे।
यह मोबाइल फोन का ज़माना नहीं था। जो भी बात होती, उसके लिए घर में होना ज़रूरी था। मैं एक सांध्य कालिज में पढ़ाता था, इसलिए दिन में अक्सर घर पर उपलब्ध रहता। दिन में लंबी बात करने की सुविधा उन्हें तो थी ही, मुझे भी थी। फोन पर बात करने का सिलसिला बढ़ता गया। वे लंबी बात करने के शौकीन थे। इतनी बातें, इतनी बातें कि उन्हें याद रखना संभव नहीं। डा नगेन्द्र की इस बात के लिए प्रशंसा करते थे कि उन्होंने उनकी कविता में आई रूमानियत और मांसलता को रेखांकित किया लेकिन इस बात से खफा भी थे
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कि हिन्दी आलोचना उनकी कविता के केवल इसी पक्ष को ले उड़ी। उनकी कविता का सौंदर्य-बोध और प्रगतिशील पक्ष रेखांकित होने से छूट गया। वे कविता में आई मांसलता को सौंदर्य के साथ जोड़कर देखने के हामी थे। बिना सौंदर्य-बोध के मांसलता का चित्रण अक्सर अश्लीलता की हदों में प्रवेश कर जाता है। उनकी कविताएँ भी इस बात की गवाह हैं कि उनकी रूमानी कविताओं का सौंदर्य-बोध सहृदय को सुख देते हुए उन्हें उनके अनुभवों से जोड़ देता है। कई बार उनकी कविता का सौंदर्य छायावादी सौंदर्य की तरह से वायवी भी लगने लगता है। जैसे छाया मत छूना मन, होगा दुख दूना मन। इसी संदर्भ में मुझे साहित्य अकादमी में हुई उस सभा का स्मरण हो रहा है, जिसमें रामविलास शर्मा गिरिजाकुमार माथुर के काव्य पर बोले थे। यह 10 जनवरी, 1994 की शाम थी। अचानक एक स्मृति मेरे मन में कौंधी है। उसी दिन माथुर साहब का निधन हुआ था और उनका अंतिम संस्कार करके हम लोग लौटे थे। निगम बोध घाट पर उनका अंतिम संस्कार हुआ था। अफसोस की बात यह कि इतने बड़े कवि के लिए साहित्यकारों की उपस्थिति लगभग नगण्य थी। अशोक वाजपेयी, कैलाश वाजपेयी, जगदीश चतुर्वेदी, नरेन्द्र मोहन आदि के चेहरे वहाँ खड़े इस समय याद आ रहे हैं। इस तरह की उदासीनता और कई जगह भी देखी गई है। इस प्रसंग को यहीं छोड़ते हुए एक अन्य प्रसंग की चर्चा करता हूँ।
डा रामविलास शर्मा को उसी दिन साहित्य अकादमी में किसी अन्य विषय पर बोलना था। वे केवल इस शर्त के साथ ही आए थे कि वे सबसे पहले गिरिजाकुमार माथुर पर बोलेंगे। साहित्य अकादमी का सेमिनार-कक्ष खचाखच भरा हुआ था। कुछ लोग प्रवेश-द्वार तक खड़े हुए थे। उन्होंने सबसे पहले गिरिजाकुमार माथुर को श्रद्धांजलि देते हुए उन्होंने कहा कि गिरिजाकुमार माथुर की कविता का प्रमुख स्वर प्रगतिशील ही है। उन्होंने उनकी अन्य कई कविताओं के साथ उनकी कविता 'एशिया का जागरण' का उदाहरण दिया। एशिया का जागरण कविता में जब वे कहते हैं- 'मेरी छाती पर रखा हुआ/साम्राज्यवाद का रक्त कलश/मेरी धरती पर फैला है/मंवंतर बनकर मृत्यु दिवस।' 'साम्राज्यवाद का रक्त-कलश' किस ओर संकेत कर रहा है। इस रक्त कलश का भार केवल भारत ही नहीं, पूरे एशिया की छाती पर था। यह कविता 1957 की है। स्थितियाँ अभी भी कहाँ बदली हैं। साम्राज्यवाद के रक्त कलश का स्वरूप बदल गया है। आर्थिक वर्चस्व के साथ-साथ सांस्कृतिक वर्चस्व भी बढ़ा है।
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गिरिजाकुमार माथुर की कविताएँ इन प्रभावों से अछूती नहीं हैं। अगर उनकी कविता व्यक्तित्त्व का मध्यांतर पर भी निगाह डालें तो लगता है कि यह कविता एक व्यक्ति की यात्रा के मध्य एक पड़ाव की कविता है- 'लो आ पहुँचा सूरज के चक्रों का उतार/रह गई अधूरी धूप उम्र के आँगन में/हो गया चढ़ावा मंद, वर्ष-अंगार थके/कुछ फूल शेष रह गए समय के दामन में।' आत्मविश्लेषण करते हुए भी कविता की भाषा उनकी प्रगतिशील मानसिकता की बुनावट की ओर ही संकेत करती है।
मेरी निगाह में गिरिजाकुमार माथुर की कविता के स्वरों को मुख्य रूप से तीन स्तरों पर समझा जा सकता है। पहला स्वर प्रगतिशील है जैसे कि एशिया का जागरण, राम भरोसे, महावृक्ष की पुकार तथा अन्य कई कविताएँ। दूसरा रोमानियत और मांसलता का स्वर जैसे चूड़ी का टुकड़ा या रेडियम की छाया आदि कविताएँ तथा तीसरा स्वर वैज्ञानिक टैंपर वाला है जैसे कल्पांतर, पृथ्वीकल्प तथा अन्य कई तर्कशील कविताएँ। उनकी कविताओं के अन्य भी कई गौण स्वर हो सकते हैं। वे स्वयं 'जो बंध नहीं सका' कहकर कई संभावनाओं की ओर संकेत करते हैं। रूमान, मांसलता, सौंन्दर्यबोध, प्रगतिशीलता, प्रयोगधर्मिता और नई कविता में मानव-मूल्यों के प्रति आग्रह के साथ-साथ उनकी कविताओं में आया साइंटीफिक टैंपर संभवत: उनके किसी भी समकलीन में नहीं हैं। अपने अंतिम दिनों में उन्होंने वैश्विक-दृष्टि अर्जित कर ली थी और उसे ही वे अपने संवाद में रेखांकित करते थे। इसके सबके बावजूद उन्हें व्यक्ति के लघु-मानत्व पर संदेह भरा विश्वास था। शायद जीवन में आए अनुभव ही इस तरह की सोच का आधार होते हैं। इसी संदर्भ में इस प्रसंग को दर्ज करना चाहता हूँ।
एक बार माथुर जी का फोन आया कि कल मुझे आल इंडिया इंस्टिट्यूट में अपनी आँखें दिखाने जाना है। उन्होंने मुझसे पूछा - 'आप मेरे साथ चलेंगे?' पवन उन दिनों अमेरिका में था और अमित नौकरी पर। मैंने सहर्ष हाँ कर दी। जनकपुरी पहुँचा। वे इंतज़ार ही कर रहे थे। टिप-टाप। सूट-बूट-टाई में रहना उन्हें सुहाता था। उनके पास फिएट गाड़ी थी। निकाली और हम दोनों चल दिये। थोड़ी दूर निकले ही थे कि उन्होंने गाड़ी सड़क किनारे रोकी, एक सिगरेट निकाली, उसके दो टुकड़े किए। एक मुझे दिया, एक खुद रखा और ज़ोर से हँसे, पूछा- 'सिगरेट पी लेते हो न?'
'हाँ , कभी कभी'।
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'मैं सिगरेट नहीं पीता, निकोटीन होती है न इसमें, पर इसका धुआँ मुझे बहुत अच्छा लगता है'। यह कोई विदेशी सिगरेट थी। उन्होंने लाइटर जलाकर मेरी और फिर अपनी सिगरेट सुलगाई। मैंने एक कश लगाते हुए उनसे पूछा- 'माथुर साहब, आधी-आधी सिगरेट…एक ही है क्या'
वे फिर हँसे। हँसते तो उनके कत्थई दाँत चमकते। कहने लगे- 'पूरी पिओगे, है मेरे पास। मैं आधी ही पिऊँगा। पूरी जलाऊँगा तो पूरी पी जाऊँगा। इसमें निकोटीन होती है। मुझे अस्थमा भी है न। घर में नहीं पीता। पवन, अमित, शकुंत जी, सब बुरा मानते हैं।' उन्होंने अपने हिस्से की आधी सिगरेट को भी आधा ही पिया और फेंक दिया। उस दिन के बाद जब भी हम बाहर घूमने निकलते, पहले आधी-आधी सिगरेट पीते, बतियाते और आगे चलते।
'सुना है, आप शराब बहुत पीते हो?' उन्होंने मुझसे पूछा।
'नहीं, बहुत तो नहीं, दो-तीन पैग…दिन में कभी नहीं पीता'
'मन तो मेरा भी करता है शराब के लिए, लेकिन मुझे सूट नहीं करती। एक पैग पीने के बाद ही बाथरूम चला जाऊँगा। इधर पी, उधर पेशाब के साथ निकल गई। क्या फायदा? बहुत पीने से नुकसान करती है। आजकल अशोक वाजपेई बहुत पीने लगा है। जगदीश चतुर्वेदी, विमल भी बहुत पीते हैं। नरेन्द्र मोहन भी लेते हैं क्या?'
'हाँ, मेरे साथ कभी कभी ले लेते हैं' मैंने कहा।
क्या लिखूँ, क्या छोड़ूँ। वे मेरे साथ एक जीवित इतिहास थे। कविता का, कवियों का।
थोड़ी ही देर में उन्होंने यह कहते हुए गाड़ी आकाशवाणी भवन की ओर मोड़ दी- 'दूरदर्शन  होते हुए चलते हैं।' मैंने हामी भरी और कुछ ही देर बाद हम उन दिनों दूरदर्शन केन्द्र के निदेशक सत्यप्रकाश किरण के कमरे में थे। सत्यप्रकाश किरण के साथ मैं एक कार्यक्रम कर चुका था। माथुर साहब ने जब मेरा परिचय करवाया। वे मुस्कराए और बोले -'सहगल जी, आपको मैं याद ही कर रहा था, उस कार्यक्रम के बाद आपने कभी संपर्क ही नहीं किया। अच्छा किया माथुर साहब, जो आप इन्हें साथ ले आए। हमारे लिए कुछ लिखिए।' उन दिनों दिल्ली दूरदर्शन पर एक लोकप्रिय कार्यक्रम 'ज़रा सोचिए' चल रहा था। यह एक प्रचारात्मक
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कार्यक्रम था। जीवन की ज़रूरी बातों को चार-पाँच मिनिट की स्किट में पेश करते हुए अंत में जीवनपयोगी कोई संदेश देना। गिरिजाकुमार माथुर उस कार्यक्रम की स्क्रिप्ट लिखते थे। उन्होंने आपस में कुछ विषयों पर चर्चा की। वहीं कुछ और लोगों से मिलने-मिलवाने के बाद हम लोग दोपहर बाद आल इंडिया इंस्टिट्यूट पहुँचे।
इसके बाद जो घटा, वह उदास करने वाला था। आँखों के एक डाक्टर के सामने उन्होंने अपना परिचय एक कवि के रूप में दिया तो उस डाक्टर ने पहचाना नहीं। हम होंगे कामयाब की बात की, तब भी वह पहचान नहीं सका, लेकिन जब उन्होंने ज़रा सोचिए कार्यक्रम वाले गिरिजाकुमार माथुर की चर्चा की तो उस डाक्टर के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आई। गिरिजाकुमार माथुर जैसे कवि के चेहरे पर विषाद की लकीरें तैरने लगी थीं। इस देश में किसी नेता का कुत्ता भी बीमार पड़ जाए तो प्रशासन और मेडिकल फ़्रेट्रनिटि सतर्क हो जाती है लेकिन गिरिजाकुमार माथुर जैसे कवि को कोई नहीं पहचानता। नार्वे का ज़िक़्र करते हुए हिमांशु जोशी अक्सर बताया करते थे कि वहाँ एक कवि, कलाकार या लेखक का कितना आदर है। गिरिजाकुमार माथुर उदास तो थे लेकिन निराश नहीं थे। मैं उनसे भी ज़्यादा उदास था और संभ्रम में था कि लघु-मानत्त्व का एक चेहरा क्या इसे भी कह सकते हैं? इसी मन: स्थिति में हम लोग वापिस लौटे।
ऐसा नहीं कि उदासी और निराशा की स्थितियाँ उनके जीवन में पहले कभी न आई हों, लेकिन उन्होंने निराशा को अपनी कविता का मूल स्वर कभी नहीं बनने दिया। उनकी कविताओं में चेतावनी है 'आज जीत की रात, पहरूए सावधान रहना', भविष्य की संभावनाएँ हैं 'हम होंगे कामयाब। हम होंगे कामयाब एक दिन, मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास, हम होंगे कामयाब एक दिन'। अमानवीय संदर्भों के खिलाफ गंभीर आवाज़ है 'विक्षिप्तों का जुलूस', तार्किकता पूर्ण चिंतन लिए अध्यात्म है जैसे काल के कगार कविता-श्रृंखला में लिखी हुई उनकी पाँच कविताएँ 'अनंत की देहरी पर', 'ठंडे कुहरे', 'समय एक सतरंगी डोर है', 'पुनर्जन्म की कामना' तथा 'रजनीगंधा कुम्हलाई'।
गिरिजाकुमार माथुर अपने कविता-संचयन मुझे और अभी कहना है (1991) की भूमिका के शुरू में लिखते हैं 'रचना यात्रा की कठिन राह अलग से बनाना तय कर लिया था' से स्पष्ट होता है कि वे अपनी सृजन-यात्रा के शुरू होने के समय से ही सतर्क और चौकस थे। जानते
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थे कि कविता में कवियों की भीड़ बहुत है। भीड़ में अपनी पहचान बनाना कठिन होता है। क्या ऐसा संभव हो पाया? कतिपय लोग मानते हैं कि गिरिजाकुमार माथुर छायावादी कविता का एक्सटेंशन हैं। क्या सचमुच ऐसा है? मुझे लगता है कि यह मान्यता सही नहीं है। उनकी शुरू की कुछ कविताओं में छायावादी प्रतिध्वनियाँ सुनाई दे सकती हैं लेकिन यह याद रखना चाहिए कि छायावादी कविता के विरोध में तब तक प्रगतिशील कविता और व्यैक्तिक गीतिकाव्यधारा अपनी-अपनी पहचान बना चुकी थीं। इनके समानंतर राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्य-धारा भी अपनी शक्ति के साथ उपस्थित थी, लेकिन उसे रेखांकित नहीं किया जा रहा था। ऐसे माहौल में उन्हें इन तीनों तरह की कविताओं को आत्मसात करते हुए अपनी अलग पहचान बनानी थी। उनकी पहचान के तीन स्तरों का ज़िक़्र मैं पहले ही कर चुका हूँ। रूमानियत भरी मांसल कविताएँ, प्रगतिशील स्वर वाली कविताएँ और वैज्ञानिक टैंपर वाली कविताएँ। रोमान और मांसलता का सौंदर्यबोध छायावादी सौंदर्यबोध से अलग लेकिन व्यैक्तिक गीतिकाव्य धारा के करीब है। माथुर साहब को कविता में ध्वनि और संगीत में नाद की गहरी पहचान थी। कविता में भी वे ध्वनि के साथ-साथ नाद तत्त्व को भी ज़रूरी मानते थे। एक बार बातचीत में उन्होंने मुझसे कहा भी था कि वे मुक्त-छंद अपनाते हुए भी कविता की लय नहीं छोड़ना चाहते। अर्थ की लय के समान ही वे शब्दों की लय को भी महत्त्व देते थे। उनकी कविताएँ इसकी गवाह हैं। इसी कविता संचयन में ही उन्होंने यह बात दर्ज की है कि यह रामविलास शर्मा ही थे, जो उन्हें पहली बार निराला से मिलवाने ले गए थे। निराला ने जब गिरिजाकुमार माथुर की कविताएँ सुनीं तो खुद ही कहा कि उनके पहले कविता-संग्रह 'मंजीर' की भूमिका वे लिखेंगे। अब यह बात इतिहास का हिस्सा है।
उनके साथ गवाक्ष की हुई कई गोष्ठियों और कलकत्ता में हुए एक कवि-सम्मेलन में मुझे कविता पढ़ने का अवसर मिला है। कविता पढ़ने से पहले कविता के चुनाव को लेकर वे अक्सर परेशान रहते थे कि अपनी यह कविता पढ़ें, वो कविता पढ़ें या कोई नयी कविता पढ़ें। कलकत्ता (अब कोलकाता) का प्रसंग दिलचस्प है, इसलिए वह मैं आपसे साझा करना चाहता हूँ। उन दिनों हिन्दी के ही एक कवि स्वदेश भारती कलकत्ता में इलाहाबाद बैंक में एक उच्च-अधिकारी थे। वे हर साल बैंक के सौजन्य से एक कवि-सम्मेलन करवाते थे। एक बार उन्होंने मुझे भी बुलाया। दिल्ली से जगदीश चतुर्वेदी, गंगाप्रसाद विमल और गिरिजाकुमार माथुर
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आमांत्रित थे। मैं इन चारों लोगों में उम्र में सबसे छोटा था। भारती ने हम सबके लिए राजधानी से टिकिट बुक करवाए थे। वापिसी हवाई जहाज़ से थी। बहरहाल हम चारों लोग दिल्ली-कलकत्ता राजधानी में सवार हुए। माथुर साहब अंत में पहुँचे थे। उनके आने से पहले हम तीनों में चर्चा थी कि यात्रा में माथुर साहब ने टाई लगाई होगी या नहीं। यह बात वस्तुत: उनकी जीवनचर्या से जुड़ी हुई थी। माथुर साहब को अच्छे कपड़े पहनने और सज-संवर कर रहने का शौक था। जगदीश चतुर्वेदी उन्हें अपने बचपन से ही जानते थे। कुछ अन्य मित्र भी यही कहते सुनाई देते कि उनमें साहिबी वाला अंदाज़ है। मैं तटस्थ था, जगदीश चतुर्वेदी आश्वस्त थे कि वे बिना टाई के नहीं आएँगे, विमल नमक-मिर्च की छौंक लगा रहे थे। थोड़ी देर बाद देखा कि सूट-बूट टाई और आँखों पर गागल्स लगाए माथुर साहब ने डिब्बे में प्रवेश किया। जगदीश मंद-मंद मुस्काराए। हमने साथ दिया। माथुर साहब का स्वागत किया। शाम का वक़्त था। गाड़ी चली। जैसे ही अँधेरा हुआ, बोतल खुली। माथुर साहब केवल दर्शक थे, हम तीनों भोक्ता।
हम सोना चाहते थे लेकिन माथुर साहब को नींद नहीं आ रही थी। उन्हें शिकायत थी कि उनकी बर्थ के ठीक नीचे ही गाड़ी का एक पहिया है जो बहुत उछलता है। मैंने कहा, आप मेरी बर्थ पर आ जाइए, मैं वहाँ चला जाता हूँ। ऐसा ही किया, थोड़ी ही देर बाद वे पुन: मेरे पास आए और कहा-'उससे तो यही बर्थ अच्छी है। आपकी बर्थ तो और भी उछल रही है।' वस्तुत: गाड़ी की गति तेज़ थी और ऐसे में लगता था कि कभी भी गाड़ी ट्रैक से उतर जाएगी। ट्रैक बदलते वक़्त कुछ ज़्यादा ही ऐसा लगता है। बमुश्किल हम लोग एक-दो घंटा ही सो पाए। बर्थ ही बदलते रहे। माथुर साहब ने अपनी टाई अभी भी नहीं उतारी थी, बस कुछ ढीली कर ली थी।
संयोग से मुझे और माथुर साहब को एक ही कमरे में रखा गया। होटल अच्छा था। शाम को मैं, जगदीश चतुर्वेदी और विमल डाइनिंग हाल में पीने के लिए बैठे। माथुर साहब नहीं आए लेकिन चर्चा में उन्हींकी उपस्थिति थी और वे दोनों मुझे रात के लिए आगाह कर रहे थे। खाने के बाद माथुर साहब ने मेरी कविताओं पर बात शुरू की। मैं उन्हें अपना पहला कविता-संग्रह 'सवाल अब भी मौजूद है' दे चुका था। उन्होंने और शकुंत माथुर, दोनों ने पढ़ा। कहने लगे -'शकुंत जी को आपकी कविताएँ औरों से बहुत अलग लगी हैं।' मैं खामोशी से उनकी
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बात सुनना चाहता था। मैंने इतना ज़रूर पूछा कि आपको कैसी लगीं? माथुर साहब की आँखों में चमक आई। उनकी आँखों में कविता के सौंदर्य जैसी चमक रहती थी। कविता पर बात करते हुए वह चमक और भी बढ़ जाती। कहने लगे-' शकुंत जी की बात मुझे ठीक लगती है लेकिन मुझे परेशानी यह है कि कविता की विभिन्न धाराओं में आपकी कविताओं को कहाँ प्लेस करूँ?'
यानी?
'इन कविताओं में रोष है, विचारधारा की आँच तो है लेकिन बहुत सी कविताएँ एकदम अलग सी हैं। छोटी कविताओं के बिंब बहुत अच्छे हैं। आजकल कविता में गाँव के अनुभव और बाज़ार के शब्द आ रहे हैं"
"माथुर साहब, मैं शहर का आदमी हूँ। गाँव मैंने या तो किताबों में पढ़ा है या फ़िल्मों में देखा है। वह कितना सच्चा है, कितना बनावटी, इस बात को छोड़ भी दूँ तो मैं गाँव के अनुभवों पर नहीं लिख सकता। मेरे पास वैसे अनुभव हैं ही नहीं। लिखूँगा, तो झूठ होगा और कविता में झूठ नहीं चलता'
'नहीं, बाज़ार के शब्द?'
'मेरे पास जो अनुभव और जो भाषा है, वही मेरी शक्ति है। शहर में भी बाज़ार है और उसके शब्द और अनुभव मेरी कविताओं में जगह पाते हैं। उसके लिए मुझे कुछ भी सायास करने की ज़रूरत नहीं। किसी कवि को कहाँ प्लेस किया जाए? यह समस्या आलोचकों की हो सकती है, मेरी नहीं। आपको भी कवि के रूप में प्लेस करने की समस्या आलोचकों के सामने है।'
'डा नगेन्द्र ने किया है, लेकिन मेरी छवि को सीमित कर दिया है। मेरी सर्वांग जीवन-दृष्टि पर चर्चा नहीं होती। मेरी कविता आत्मनिष्ठ होते हुए भी आत्मनिष्ठ कल्पना विलास नहीं है। उसे एक बड़ी दुनिया के साथ जुड़ना है।' इसके साथ ही उन्होंने पृथ्वीकल्प तथा कल्पांतर की कविताओं की चर्चा की और उन कविताओं की चर्चा की जिनके मूलाधार उनके देहातों पछार

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और टकनेरी में हैं, जिसे बाद  और आज भी अशोक नगर के नाम से जाना जाता है। दियाधरी नाम की कविताएँ इसी पृष्ठभूमि से आती हैं।
एकदम उन्होंने चर्चा का ट्रैक बदला और मेरी पत्नी शशि सहगल की कविताओं की चर्चा शुरू की। कहने लगे -'अच्छी बात यह है कि आप दोनों की कविताओं का स्वर समान नहीं है। उनकी कविताएँ एक कामकाजी गृहस्थिन की कविताएँ हैं। उनमें संवेदना के बिंदु गहरे हैं, आपकी कविताओं में विचार के'
'जैसे कि आपकी और शकुंत जी की कविताओं के आधार अलग-अलग हैं' वे ज़ोर से हँसे  और बात बदलने लगे।
यह एक लंबी काव्य-चर्चा थी, जिसके कुछ सूत्र ही अब स्मृति में है। इस चर्चा के बाद उन्होंने अपनी कई कविताएँ निकालीं और पूछा -'कल कौन-कौन सी सुनाऊँ?' कुछ नई कविताएँ भी थीं। जगदीश चतुर्वेदी और विमल ने मुझे इस खतरे से आगाह कर दिया था। अब वह खतरा सामने था। मैं इससे बच नहीं सकता था। सोना चाहता था लेकिन माथुर साहब को यह कहने का साहस अभी नहीं था। वे एक के बाद एक अपनी कविताएँ पढ़ने लगे। कौन सी कविता सुनाऊँ? यह उनका शाश्वत प्रश्न था। आठ-दस कविताएँ सुनने के बाद होटल की लाइट चली गई। मुझे उस स्थिति से सम्मानपूर्वक निकलने का अवसर मिला- 'माथुर साहब अब सोते हैं। आप जो भी सुनाएँ, लेकिन छाया मत छूना मत का सस्वर पाठ ज़रूर करें, मैंने आज तक उसे आपके मुख से सुना नहीं है।
'पुरानी है, अच्छा सुनोगे…पहले यह सुनो, नई कविता है' कहते हुए उन्होंने अपनी छोटी सी टार्च निकाली और कागज़ों पर घुमा-घुमा कर अपनी कविता पढ़ने लगे।' यह बात मुझे स्तंभित करने वाली थी कि इतना बड़ा कवि अभी तक कविता सुनाने के मोह से मुक्त नहीं हो पाया। वह कविता सुनी और लाइट आ गई। अब कुछ और कविताएँ। रात के दो बज चुके थे। उन्हें नींद नहीं आ रही थी और मैं सोना चाहता था।
उस रात मुश्किल से हम लोग तीन-चार घंटा ही सो पाए।  

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अगले दिन के कवि-सम्मेलन में उन्होंने अपनी अन्य कविताओं के साथ छाया मत छूना मन का भी सस्वर पाठ किया। उनका कंठ मधुर था। आरोह-अवरोह पर नियंत्रण। उम्र के उस पड़ाव पर भी कविता का सस्वर पाठ करते हुए न लय टूटती थी, न साँस। श्रोता मंत्र-मुग्ध थे।
एक प्रसंग और याद आ रहा है। एक दिन पवन का फोन आया- 'कहाँ हो?'
'मैं घर ही हूँ, तुम सुनाओ'
'पापा जी की तबियत ठीक नहीं है। वो तुम्हें याद कर रहे हैं। मिलना चाहते हैं तुमसे'
पवन ने ही बताया कि उन्हें गंभीर रूप से अस्थमा का अटैक हुआ है और वे पिछले तीन-चार दिनों से नर्सिंग होम में हैं। यह जनकपुरी के ही आसपास कोई नर्सिंग होम था। उसी शाम मैं उनसे मिलने गया। कमरे में पवन भी साथ था। माथुर साहब अव्यवस्थित थे। दाढ़ी बढ़ी हुई। मुझे देखते ही मुस्कराए और अपनी दाढ़ी की ओर इशारा करते हुए पूछा - 'बाबा नागार्जुन लगता हूँ न?' मैं भी मुस्काराया। कुछ वक़्त वहाँ गुज़ारा और पवन से हालचाल जानने के बाद लौटा। मौसम बदलते हुए उन्हें अक्सर अस्थमा का अटैक होता था। इस बार कुछ ज़्यादा तेज़ था। इसी मर्ज़ के चलते ही उन्होंने कई दिन बाद अंतिम साँस ली थी।
माथुर साहब का दैहिक रूप से अनुपस्थित होना, कविता में अनुपस्थित होना नहीं था। उनके सही मूल्यांकन का दौर सही अर्थों में अब शुरू हुआ था। अपनी कुछ स्मृतियों के बहाने मेरा यह एक विनम्र प्रयास है।

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