शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

रक्त-चाप

रक्त-चाप


सारी शर्म छोड़
और सारे बन्धन तोड़
घूमने लगा है खून
शिराओं में
कि जैसे वाहन
दौड रहा हो
स्पीड-ब्रेकरों से भरी सड़कों पर

प्रेम से काटता है
एक विषभरा नाग
और वहीं कहीं
दुबक कर सो जाता है
खून की झाडियों में.

मैंने सब्ज़ी वाले से पूछा
तुमने सुना है इस नाग का नाम
वह सब्ज़ी के भाव बताने लगा
डबलरोटी वाले से पूछा
तो वह मक्खन की टिकिया दिखाने लगा
एक मैकेनिक से पूछा मैंने
उसने औज़ार मेरे सिर पर पटक दिये
पूछा एक मजूर से
उसने सिर पर दो ईंटें और रखीं
और फटाफट बनती इमारत पर चढ़्ने लगा
एक बुद्धिजीवी से भी पूछ लिया
वह हल्के से मुस्कराया
फिर एक झोला दिखाया

दरअसल हम दोनों उसी झोले में बंद हैं
झोले में मैंने कर लिये हैं कुछ  सूराख
वहीं से कभी सब्ज़ी वाले
और
कभी मजूर को देखता हूं
नाग है कि
झोले में सूराखों के बावजूद
जमा है झोले के अंदर ही.

2 टिप्‍पणियां:

  1. यही तो चाप की थाप है खूनी
    तेज हो या फिर हो अति धीमी
    रहती है झोले में ही अब हमारे
    झोला जो शरीर है हमारा आपका

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  2. प्रिय भाई प्रताप सहगल
    कविता अच्छी है।
    इस कविता में प्रेम का संबंध शायद मुझसे और नागों का सबंध जनमेजय से है?
    सप्रेम
    जनमेजय

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टिप्‍पणी सच्‍चाई का दर्पण है